प्रथम अध्याय द्वितीय वल्ली
अन्यच्छेयोऽन्यदुतैव प्रेयस्ते उभे नानार्भे पुरुषं सिनीतः।
तयोः श्रेय आददानस्य साधु भवति हीयतेऽर्थाद्य उ प्रेयो वृणीते ॥१॥
शब्दार्थः श्रेयः = कल्याण का साधन; अन्यत् = अलग है, दूसरा है; उत = तथा; प्रेयः = प्रिय प्रतीत होनेवाले भोगों का साधन; अन्यत् एव = अलग ही है, दूसरा ही है; ते उभे = वे दोनों; नाना अर्थे = भिन्न अर्थों में, भिन्न प्रयोजनों में; पुरुषम् = पुरुष को; सिनीतः = बाँधते हैं, अपनी ओर आकृष्ट करते हैं; तयोः= उन दोनों में; श्रेयः = कल्याण के साधन को; आददानस्य= ग्रहण करनेवाले पुरुष का; साधु भवति= कल्याण (शुभ) होता है; उ यः = और जो; प्रेयः वृणीते = प्रेय को स्वीकार करता है; अर्थात् = अर्थ से, यथार्थ से; हीयते = भ्रष्ट हो जाता है।
वचनामृतः श्रेयस् अन्य है, प्रेयस् अन्य है। ये दोनों पुरुष को भिन्न-भिन्न प्रयोजनों से आकर्षित करते हैं। उनमें श्रेयस् को ग्रहण करनेवाले पुरुष का कल्याण होता है और जो प्रेयस् का वरण करता है, वह यथार्थ से भ्रष्ट हो जाता है।
सन्दर्भः मन्त्र १ तथा २ अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं। यहां से ब्रह्मविद्या के उपदेश का प्रारंभ हो रहा है।
दिव्यामृतः संसार में मनुष्य के लिए दो ही मार्ग हैं--एक श्रेयमार्ग, दूसरा प्रेयमार्ग। श्रेयमार्ग मनुष्य के लिए सब प्रकार से कल्याणकारी सिद्ध होता है तथा प्रेयमार्ग मनुष्य को संसार में भटकाकर उसे जीवन के मूल उद्देश्य से ही हटा देता है। श्रेयमार्ग आत्मकल्याण का मार्ग है तथा मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति की ओर उन्मुख कर देता है। प्रेयमार्ग सांसारिक सुखभोग का मार्ग है तथा अन्त में वह मनुष्य के सुख-शान्ति को विनष्ट कर देता है। ये दोनों ही मनुष्य को अपनी ओर आकर्षित करते हैं। मनुष्य अपने मार्ग का चयन करने और उसका अनुसरण करने में स्वतन्त्र हैं।
कठोपनिषद् के प्रथम अध्याय की प्रथम वल्ली में इस उपनिषद् की भूमिका है तथा यमदेव आचार्य के रूप में नचिकेता की परीक्षा लेकर आश्वस्त हो जाते हैं कि वह आत्मज्ञान-प्राप्ति का सुपात्र है। नचिकेता कर्मकाण्ड (यज्ञ आदि) की सीमा को जानता है तथा वह असीम ज्ञान की प्राप्ति के लिए सन्नद्ध है। यमाचार्य स्वयं भी कर्मकाण्ड को आध्यात्मिक ज्ञान की अपेक्षा तुच्छ मानते हैं। इस दूसरी वल्ली से ज्ञानोपदेश का प्रारंभ होता है। ब्रह्मविद्या का उपदेश उत्तम अधिकारी को ही दिया जा सकता है, अनधिकारी को कदापि नहीं।
श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यमेतस्तौ सम्परीत्य विविनक्ति धीरः।
श्रेयो हि धीरोऽभिप्रेयसो वृणीते प्रेयो मन्दो योगक्षेमाद् वृणीते ॥२॥
शब्दार्थः श्रेयश्च प्रेयश्च मनुष्यम् एतः=श्रेय और प्रेय मनुष्य को प्राप्त होते हैं, मनुष्य के सामने आते हैं; धीरः = श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; तौ = उन पर; सम्परीत्य = भली प्रकार विचार करके; विविनक्ति = छानबीन करता है, पृथक्-पृथक् समझता है; धीरः= श्रेष्ठ बुद्धिवाला पुरुष; प्रेयसः = प्रेय की अपेक्षा; श्रेयः हि अभिवृणीते= श्रेय को ही ग्रहण करता है, श्रेय का ही वरण करता है; मन्दः= मन्द मनुष्य; योगक्षेमात्= सांसारिक योग (अप्राप्त की प्राप्ति) और क्षेम (प्राप्त की रक्षा) से; प्रेयः वृणीते = प्रेय का वरण करता है।
वचनामृतः श्रेय और प्रेय (दोनों) मनुष्य को प्राप्त होते हैं। श्रेष्ठबुद्धिसम्पन्न पुरुष विचार करके उन्हें पृथक्-पृथक् समझता है। श्रेष्ठबुद्धिवाला मनुष्य प्रेय की अपेक्षा श्रेय को ही ग्रहण करता है। मन्दबुद्धिवाला मनुष्य लौकिक योगक्षेम (की इच्छा) से प्रेय का ग्रहण करता है।
सन्दर्भः इस मंत्र को कण्ठस्थ कर लेना चाहिए। उपनिषदों तथा भगवद् गीता में अनेक स्थानों पर धीरपुरुष (विवेकशील पुरुष) की प्रशंसा की गयी है। धीर को ज्ञानी एवं विद्वान भी कहा गया है।
दिव्यामृतः संसार में मनुष्य के सामने जीवन के दो मार्ग होते हैं-श्रेय तथा प्रेय। श्रेय मनुष्य के विकास का मार्ग है तथा प्रेय ह्रास का मार्ग है। श्रेय से दूरगामी, स्थायी, सकारात्म एवं सारमय फल प्राप्त होते हैं तथा प्रेय से तत्काल कुछ क्षणिक, लौकिक सुख प्राप्त होते हैं। श्रेयमार्ग मनुष्य को शारीरिक सुखों एवं इन्द्रिय-सुखों के आकर्षण से दूर हटाकर तथा आत्मा की ओर उन्मुख कर, उसे जीवन के उच्चतर स्तर पर स्थित कर देता है। श्रेयमार्ग मनुष्य को इन्द्रियों की दासता से ऊपर उठा देता है तथा जीवन को प्रकाशमय बना देता है। प्रेयमार्ग मनुष्य को भौतिक सुखभोगों में निमग्र कर उसे अन्तहीन अन्धकार में धकेल देता है। मन्द, अदूरदर्शी मनुष्य भौतिक सुखभोग के साधनों को प्राप्त करने (योग) तथा उनकी सुरक्षा करने (क्षेम) में चिन्तित एवं व्यग्र रहता है। विवेकशील पुरुष श्रेय का तथा मन्द पुरुष प्रेय का वरण करते हैं। मनुष्य अपने मार्ग का चयन करने में स्वतंत्र होता है। मनुष्य स्वयं ही अपने भाग्य का निर्माता होता है।
मनुष्य को संसार के विषय-सागर को कुशलतापूर्वक पार करके ही परमानन्द की प्राप्ति हो सकती है। बुद्धिमान् पुरुष विवेक द्वारा इसे पार कर लेता है, किन्तु मन्दबुद्धि इसमें डूबकर विनष्ट हो जाता है। बुद्धिमान् पुरुष अविद्या के क्षेत्र में विवेक द्वारा भोगादि की तृप्ति करके, विद्या के क्षेत्र में प्रविष्ट होकर आत्यन्तिक तृप्ति करता है, अर्थात् विषयसुख से निवृत्त होकर परमानन्द प्राप्ति की ओर उन्मुख हो जाता है। बुद्धिमीन् मनुष्य को गंभीरतापूर्वक श्रेय तथा प्रेय मार्ग पर गंभीरतापूर्वक चिन्तन करके श्रेय का वरण तथा प्रेय का त्याग करना चाहिए। जैसे हंस नीर-क्षीर विवेक में निपुण होता है तथा नीर को त्यागकर क्षीर (दुग्ध) को ग्रहण कर लेता है, उसी प्रकार धीर पुरुष प्रेय को त्यागकर श्रेय का वरण कर लेता है। (इस मंत्र का गूढार्थ समझने के लिए भगवद् गीता के अध्याय २ के श्लोक ६४, ६५ तथा अध्याय ३ के श्लोक ६, ७ के देखना चाहिए। योगक्षेम की चर्चा गीता-९.२२ तथा तैत्ति० उप०-३.१० में भी है)
स त्वं प्रियान् प्रियरूपांश्च कामानभिध्यायन्नचिकेतोऽत्यस्त्राक्षीः।
नैतां सृडकां वित्तमयीमवाप्तो यस्यां मज्जन्ति बहवो मनुष्याः ॥३॥
शब्दार्थः नचिकेतः = हे नचिकेता; स त्वम् =वह तुम हो; प्रियान् च प्रियरूपान् कामान् = प्रिय (प्रतीत होनेवाले) और प्रिय रूपवाले भोगों को; अभिध्यायन् = सोच-समझकर; अत्यस्त्राक्षीः = छोड़ दिया; एताम् वित्तमयीम् सृडकाम् = इस धनसम्पत्तिस्वरूप सृडका (रत्नमाला एवं बन्धन अथवा मार्ग) को; न अवाप्तः = प्राप्त नहीं किया; यस्याम् = जिसमें; बहवः मनुष्याः मज्जन्ति = बहुत लोग फँस जाते हैं, मुग्ध हो जाते हैं। (सृडका के अन्य अर्थ मार्ग तथा बन्धन हैं। सृडका अर्थात् रत्नमाला, धन-लोभ का मार्ग, धन का बन्धन। )
वचनामृतः वह तू है (ऐसे तुम हो कि) प्रिय प्रतीत होनेवाले और प्रिय रूपवाले (समस्त) भोगों को सोच-समझकर (तुमने) छोड़ दिया, इस बहुमूल्य रत्नमाला को भी स्वीकार नहीं किया जिसमें (जिसके प्रलोभन में) अधिकांश लोग फँस जाते हैं।
सन्दर्भः गुरु यमाचार्य उपदेश-ग्रहण की पात्रता के परीक्षण में नचिकेता को पूर्णतः उत्तीर्ण देखकर उसकी प्रशंसा करते हैं।
दिव्यामृतः शिक्षण-कार्य में कुशल गुरु शिष्य की उपदेश-ग्रहण की पात्रता की परीक्षा लेते हैं तथा उसे उत्तम विद्या का अधिकारी देखकर उसका प्रोत्साहन करते हैं। यमाचार्य नचिकेता से कहते हैं-नचिकेता, तुम धन्य हो। मैंने परीक्षा करके स्वयं को सन्तुष्ट कर लिया है कि तुम आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए सच्चे अधिकारी हो। तुम वैराग्य और विवेक से संपन्न हो। विवेकशील व्यक्ति दूरदर्शी होता है तथा वह क्षणिक सुखभोग के प्रलोभन में नहीं फँसता। तुमने तो बहुमूल्य रत्नमाला के उपहार को (एवं धन के बन्धन को) तुच्छ मानकर तिरस्कृत कर दिया। सांसारिक सुखभोगों में लिप्त होनेवाला व्यक्ति भले और बुरे को विवेचन नहीं करता तथा येनकेन प्रकारेण सुखभोगों के साधनरूप धन को संगृहीत करने में जुटा रहता है। धनसंचय के लिए वह कुमार्ग का अनुसरण करने में किंचिन्मात्र भी संकोच नहीं करता। प्रारंभ में अन्तरात्मा की ध्वनि उसे कुमार्गगामी होने से रोकती है, किन्तु वह पुनः पुनः उसकी उपेक्षा कर देता है और उसकी अनसुनी कर देता है तथा वह मन्द हो जाती है जैसे अग्नि राख के ढेर से दबने पर तेज खो देती है। नचिकेता ने स्वयं को परमात्मतत्त्व के श्रवण और ग्रहण करने के लिए सुयोग्य अधिकारी प्रमाणित करके गुरु यमाचार्य को सन्तुष्ट कर दिया।
दूरमेते विपरीत विषूची अविद्या या च विद्येति ज्ञाता।
विद्याभीप्सितं नचिकेतसं मन्ये न त्वा कामा बहवोऽलोलुपन्त ॥४॥
शब्दार्थः या अविद्या = जो अविद्या; च विद्या इति ज्ञाता = और विद्या नाम से ज्ञात है; एते = ये दोनों; दूरम् विपरीते = अत्यन्त विपरीत (हैं); विषूची = भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं, नचिकेतसम् विद्या अभीप्सितम् मन्ये = (मैं) नचिकेता को विद्या की अभीप्सा (अभिलाषा) वाला मानता हूँ; त्वा = तुम्हें; बहवः कामाः न अलोलुपन्त= बहुत से भोग लोलुप (लुब्ध) न कर सके।
वचनामृतः जो अविद्या और विद्या नाम से विख्यात हैं, ये (परस्पर) अत्यन्त विपरीत हैं। (ये) भिन्न-भिन्न फल देनेवाली हैं। मैं तुम नचिकेता को विद्या का अभिलाषी मानता हूँ, तुम्हें बहुत से भोगों ने प्रलुब्ध नहीं किया।
सन्दर्भः यमाचार्य नचिकेता के परीक्षा-परिणाम से प्रसन्न हैं।
दिव्यामृतः विद्या श्रेयमार्ग और अविद्या प्रेयमार्ग है तथा दोनों मार्ग परस्पर विरुद्ध तथा भिन्न-भिन्न फल देनेवाले हैं। गुरु यमाचार्य पात्र-परीक्षा में नचिकेता को धनादि के प्रलोभन के मुक्त और ज्ञानप्राप्ति के लिए आस्था में अविचल पाकर सन्तुष्ट हो गये। नचिकेता ने स्वयं को सर्वोच्च अध्यात्मविद्या के अधिकारी के रूप में प्रमाणित कर दिया। आत्म-कल्याण के मार्ग पर आरूढ होनेवाला विवेकशील पुरुष सावधान रहता है तथा प्रचुर भोगसामग्री को देखकर भी विचलित नहीं होता, भटकता नहीं है। वह लक्ष्य पर अपनी दृष्टि को स्थिर रखता है। संसार की भौतिक सामग्री का उचित उपभोग करते हुए लक्ष्य की ओर बढते रहना विवेक है तथा उसके प्रलोभन में फँसकर अप्राप्त की प्राप्ति और प्राप्त की सुरक्षा अर्थात् उसके योगक्षेम में व्यग्र और व्यस्त रहना और सांसारिक चिन्ता, भय एवं क्लेश में ही जीवन का क्षय कर देना अविवेक है।
अविद्यायामन्तरे वर्तमानः स्वयं धीराः पण्डितम्मन्यमानाः।
दन्द्रम्यमाणाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः ॥५॥
शब्दार्थः अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानः = अविद्या के भीतर ही रहते हुए; स्वयं धीराः पण्डितम् मन्यमानाः = स्वयं को धीर और पण्डित माननेवाले; मूढ़ाः = मूढ जन; दन्द्रम्यमाणाः = टेढ़े-मेढ़े मार्ग पर चलते हुए, ठोकरें खाते हुए, भटकते हुए; परियन्ति = घूमते रहते हैं, स्थिर नहीं होते; यथा- जैसे, अन्धेन एव नीयमानाः अन्धाः = अन्धे से ले जाए हुए अन्धे मनुष्य।
वचनामृतः अविद्या के भीतर ही रहते हुए, स्वयं को धीर, पण्डित माननेवाले मूढजन, भटकते हुए चक्रवत् घूमते रहते हैं, जैसे अन्धे से ले जाते हुए अन्धे।
सन्दर्भः अविद्या में फँसे हुए मनुष्य अधोगति को प्राप्त होते हैं। यह मंत्र मुण्डक उपनिषद् (१.२.८) में भी है।
दिव्यामृतः विद्या का अर्थ आध्यात्मिक प्रकाश को उत्पन्न करनेवाला उत्तम ज्ञान है तथा अविद्या का अर्थ अन्धकार उत्पन्न करनेवाला निकृष्ट ज्ञान है। आध्यात्मिक दृष्टि से मात्र भौतिक उन्नति एवं भौतिक सुखभोग-संबंधी ज्ञान विद्या नहीं होता, वह निकृष्ट स्तर कर ज्ञान होता है। विद्या मनुष्य को भौतिक बन्धन (आकर्षण) से मुक्त करा देती है। बुद्धिमान् पुरुष अविद्या से विद्या की ओर चला जाती है। श्रेयमार्ग विद्या का मार्ग है तथा प्रेयमार्ग अविद्या का मार्ग है। भौतिक सुखभोग को ही जीवन का उद्देश्य माननेवाले भौतिकतावादी (भोगवादी) मनुष्य की शक्तियों का क्षय हो जाता है और उसके जीवन का सौन्दर्य विनष्ट हो जाता है। १ वह जीवन में उच्च स्तरों के लाभ से वंचित रहता है और पशु-स्तर पर भोगरत रहने के कारण उसका आन्तरिक विकास नहीं होता। भोगों की इच्छा मनुष्य को भटकाकर अन्त में उसकी दुर्गति कर देती है। इन्द्रिय-
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१. प्रख्यात वैज्ञानिक आर० ए० मिलकन ने भौतिक सुखभोग पर केन्द्रित भौतिकवादी जीवन-दर्शन को बुद्धि की मन्दता का शिखर कहा है तथा डार्विन के सहयोगी एवं महान् चिन्तक टी० एच० हक्सले ने भी भौतिकता की निन्दा की है। स्वयं डार्विन ने जीवन के अन्त में मात्र भौतिकवाद के अनुसरण को जीवन-सौन्दर्य के अनुभव से वंचित रहना कहा है।
सुखों की दासता निकृष्ट बन्धन होती है। जिस प्रकार एक अन्धे के निर्देश पर चलनेवाले अन्धे व्यक्ति भटकते हुए ठोकर खाते रहते हैं और लक्ष्य को प्राप्त नहीं होते, उसी प्रकार भोगों का अनुसरण करनेवाले मनुष्य भी जीवन के उच्चतर लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकते। अंधी अंधा ठेलिया दोनों कूप पड़न्त।
न साम्परायः प्रतिभाति बालं प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी पुनः पुनर्वशमापद्यते मे॥ ६॥
शब्दार्थ: वित्तमोहेन मूढम् = धन के मोह से मोहित; प्रमाद्यन्तम् बालम् = प्रमाद करनेवाले अज्ञानी को; साम्परायः= परलोक, लोकोत्तर-अवस्था, मुक्ति; न प्रतिभाति = नहीं सूझता; अयं लोक: = यह लोक (ही सत्य है); पर न अस्ति = इससे परे (कुछ) नहीं है; इति मानी = ऐसा माननेवाला, अभिमानी व्यक्ति; पुनः पुनः = बार-बार; मे वशम् = मेरे वश में; आपद्यते = आ जाता है।
वचनामृतः धन सम्पत्ति से मोहित, प्रमादग्रस्त अज्ञानी को परलोक (अथवा लोकोत्तर-अवस्था) नहीं सूझता। यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला लोक (ही सत्य) है, इससे परे (अतिरिक्त) कुछ नहीं है, ऐसा माननेवाला अभिमानी मनुष्य पुनः पुनः मेरे (यमराज के) वश में आ जाता है।
सन्दर्भः भोगासक्त व्यक्ति दूरदर्शी नहीं होता।
दिव्यामृतः संसार के प्रपंच में फँसा हुआ मनुष्य समझता है कि यह प्रत्यक्ष दीखनेवाला लोक ही सब कुछ है तथा इससे परे कहीं कुछ नहीं है। धन के मोह से मोहित अज्ञानी मनुष्य की दूरदृष्टि नहीं होती। वह प्रमाद (गंभीर चिन्तन, स्वाध्याय तथा यम-नियम आदि का पालन न करना) के कारण इस जगत्प्रपंच में ऐसा फँसा रहता है कि उसे इससे परे कुछ नहीं सूझता। वह सोचता है कि यह संसार ही सत्य है और इससे सुखभोगों से बढ़कर कुछ भी नहीं है। ऐसा माननेवाला मनुष्य अभिमानग्रस्त होता है तथा किसी के ज्ञानमय उपदेश को नहीं सुनता।
वास्तव में मनुष्य को आध्यात्मिक प्रबोध होने पर लोकोत्तर-अवस्था की प्राप्ति अपने भीतर ही हो जाती है। मानव की चेतना के अनेक स्तर होते हैं तथा चेतना के विभिन्न स्तरों पर विभिन्न प्रकार की उच्चावस्थाओं की अनुभूति हो जाती है। सारा संसार सूक्ष्मरूप से अपने भीतर ही है। १ मनुष्य का आत्मा चिदंश अथवा परमात्मा का ही अंश
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१. चित्तमेव हि संसारः तत्प्रयत्नेन शोधयेत्। (मैत्रेयी उप०)
—चित्त ही संसार है, उसका शोधन प्रयत्न से करना चाहिए।
होता है। विमूढ व्यक्ति भोगासक्त रहकर चेतना के उच्च स्तरों के अलौकिक आनन्द से वंचित रह जाता है। वह पशुओं की भाँति निम्नस्तरीय भोगों में रत रहकर जीवन के सौन्दर्य का अनुभव नहीं कर पाता। मनुष्य के भीतर भी वह सब कुछ है, जो समस्त बहिर्जगत् में है।
श्रवणायापि बहुरभिर्यो न लक्ष्यः श्रृण्वन्तोपि बहवो यं न विद्युः।
आश्चर्यो वक्ता कुशलोस्य लब्धाश्चर्यो ज्ञाता कुशलानुशिष्टः॥ ७॥
शब्दार्थः यः बहुभिः श्रवणाय अपि न लभ्यः = जो (आत्मतत्त्व) बहुतों को सनने के लिए भी नहीं मिलता; यम् बहवः श्रृण्वन्तः अपि न विद्युः = जिसे बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते; अस्य वक्ता = इसका वक्ता; आश्चर्य = आश्चर्यमय (है)। लब्धा कुशलः = (इसका) ग्रहण करनवाला कुशल (परम बुद्धिमान्); कुशलानुशिष्टः = कुशल (जिसे उपलब्धि हो गई है) से अनुशिष्ट (शिक्षित); ज्ञाता = (आत्मतत्त्व का) जाननेवाला; आश्चर्यः = आश्चर्यमय (है)।
वचनामृतः = जो (आत्मतत्त्व) बहुत से मनुष्यों को सुनने के लिए भी नहीं मिलता, जिसे बहुत से मनुष्य सुनकर भी नहीं समझ पाते, इसका कहनेवाला आश्चर्यमय है, ग्रहण करनेवाला परम बुद्धिमान् है, उससे शिक्षित ज्ञाता पुरुष आश्चर्यमय है।
सन्दर्भः = आत्मतत्त्व की गूढता का निरूपण किया गया है।
दिव्यामृत: आत्मतत्त्व अत्यन्त गूढ एवं आश्चर्यप्रद है। १ इसको सुनने में भी रुचि लेनेवाले दुर्लभ होते हैं। प्रायः सभी मनुष्य जगत्प्रपंच में फँसे हुए रहते हैं तथा आत्मकल्याण की चर्चा के लिए उनमें न रुचि होती है और न इसके लिए अवकाश (फुर्सत) ही होता है। आत्मतत्त्व का विषय इतना गंभीर है कि प्रायः मनुष्य उसके विवेचन को सुनकर भी उसे नहीं समझ पाते। इस गूढ आत्मतत्त्व का वक्ता महापुरुष आश्चर्यमय होता है। उसकी जीवनशैली असामान्य होती है। मनुष्य उसे देखकर आश्चर्य करते हैं। आत्मतत्त्व के विवेचन को समझने और ग्रहण करनेवाला मनुष्य भी एक दुर्लभ महापुरुष होता है। ऐसे ज्ञानमार्गी धीर (परम बुद्धिमान्) होते हैं।
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१.आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यिवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्॥ (गीता, २.२९)
—कोई आत्मा को आश्चर्य से देखता है, कोई अन्य आश्चर्य से कहता है, कोई आश्चर्यचकित
होकर सुनता है और इसे सुनकर भी कोई समझता नहीं है।
आत्मतत्त्व को उपलब्ध करनेवाले किसी महाज्ञानी को गुरु मानकर उसकी कृपा से आत्मतत्त्व का ग्रहण करनेवाला पुरुष भी आश्चर्य ही होता है। १ गूढ आत्मतत्त्व का समर्थ वक्ता और जिज्ञासु श्रोता तो दुर्लभ होते ही हैं, आत्मज्ञान से मण्डित आत्मदर्शी एवं अनुभवी ज्ञानी गुरु और ज्ञानी शिष्य भी दुर्लभ होते हैं। ये सभी श्रेष्ठ महापुरुष आश्चर्यमय एवं दुर्लभ होते हैं।
न नरेणावरेण प्रोक्त एष सुविज्ञेयो बहुधा चिन्त्यमानः।
अनन्यप्रोक्ते गतिरत्र अमीयान् ह्यतर्क्यमणुप्रमाणात्॥ ८॥
शब्दार्थ: अवरेण नरेण प्रोक्तः = अवर (अल्पज्ञ, तुच्छ) मनुष्य से कहे जाने पर; बहुधा चिन्त्यमानः = बहुत प्रकार से चिन्तन किए जाने पर (भी); एष = यह आत्मा, यह आत्मतत्त्व; न सुविज्ञेय: =सुविज्ञेय (भली प्रकार से जानने के योग्य) नहीं है; अनन्यप्रोक्ते = किसी अन्य आत्मज्ञानी के द्वारा न बताये जाने पर; अत्र = यहाँ, इस विषय में; गतिः न अस्ति = पहुँच नहीं है; हि = क्योंकि, अणुप्रमाणात् = अणु के प्रमाण से भी; अणीयान् = छोटा अर्थात् अधिक सूक्ष्म; अतर्क्यम् = तर्क या कल्पना से भी परे।
वचनामृत: तुच्छ बुद्धिवाले मनुष्य से कहे जाने पर, बहुत प्रकार से चिन्तन करने पर भी, यह आत्मतत्त्व समझ में नहीं आता। किसी अन्य ज्ञानी पुरुष के द्वारा उपदेश न किये जाने पर इस विषय में प्रवेश नहीं होता, क्योंकि यह (विषय) अणुप्रमाण (सूक्ष्म) से भी अधिक सूक्ष्म है, तर्क से परे है।
सन्दर्भ: इस मंत्र में आत्मतत्त्व की गूढता कही गई है। (इस मंत्र के अनेक अन्वय और अर्थ किए गए हैं)।
दिव्यामृत: एक सामान्य बुद्धिवाले मनुष्य से बहुत समझाये जाने पर भी आत्मतत्त्व गूढता के कारण समझ में नहीं आ सकता, भले ही इस पर बहुत प्रकार से चिन्तन भी कर लिया जाए। जब तक इसे किसी ऐसे
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१. मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः॥ (गीता, ७.३)
—सहस्त्रों में कोई एक सिद्धता के लिए यत्न करता है, यत्न करनेवाले सिद्धों में भी कोई एक परमात्मा को ठीक प्रकार से जान पाता है।
नर सहस्त्र महुँ सुनहु पुरारी, कोउ एक होइ धर्मब्रतधारी।
धर्मसील कोटिक महँ कोई, बिषय बिमुख बिराग रत होई।
कोटि बिरक्त मध्य श्रुति कहई, सम्यक ग्यान सकृत कोउ लहई।
ग्यानवंत कोटिक महँ कोऊ, जीवनमुक्त सकृत-जग सोऊ।
तिन्ह सहस्त्र महुँ सब सुख खानी, दुर्लभ ब्रह्मलीन बिग्यानी। (रामचरितमानस, उत्तरकाण्ड)
ज्ञानी पुरुष से न समझाया जाए, जो इसे भली प्रकार से जान चुका है और स्वयं इसका अनुभव कर चुका है, इसका ग्रहण नहीं किया जा सकता। कारण यह है कि यह सूक्ष्म से अधिक सूक्ष्म है तथा तर्क से परे है।
आत्मतत्त्व दुर्विज्ञेय और दुरूह है। यह समस्त सूक्ष्म तत्त्वों से भी अधिक सूक्ष्म है। प्रखर बुद्धिवाला मनुष्य भी इसे बुद्धि द्वारा समझ नहीं सकता। आत्मतत्त्व बुद्धि एवं इन्द्रियों का विषय नहीं है तथा गहन आन्तरिक अनुभूति का विषय है।
मनुष्य की बुद्धि और उसकी तर्कशक्ति की एक सीमा होती है। मनुष्य किसी सूक्ष्मतत्त्व को बुद्धि द्वारा नहीं समझ सकता। परमात्मा तो सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। मात्र बुद्धि का अवलम्बन लेकर मनुष्य ब्रह्मज्ञान के क्षेत्र में प्रवेश ही नहीं कर सकता। आत्मानुभूतिसंपन्न महापुरुष ही एक सच्चे जिज्ञासु एवं श्रद्धालु अधिकारी (सत्पात्र) को इसका ग्रहण करा सकता है तथा उसका मार्ग-निर्देशन कर सकता है। ज्ञानी महात्मा परमात्मा तथा अपने आत्मा की एकता की अनुभूति करके परमानन्द की प्राप्ति कर लेता है और तर्कपूर्ण शब्दों को पीछे छोड़ देता है। साक्षात्कार का स्वानुभव न होने पर मनुष्य आत्मतत्त्व का प्रतिपादन नहीं कर सकता। यथार्थज्ञानसंपन्न महात्मा ही अधिकारी पुरुष को यथार्थज्ञान का सम्यक् ग्रहण करा सकता है। आत्मा अनुभवगम्य है तथा आत्मदर्शी महापुरुष एक साधनसम्पन्न सुयोग्य व्यक्ति को आत्मप्रकाश का अनुभव सहज ही सुलभ कर देता है। आत्मदर्शी तत्त्वज्ञानी ही प्रवचन करने में समर्थ होता है, कोई अन्य साधारण व्यक्ति नहीं।
नैषा तर्केण मतिरापनेया प्रोक्तान्येनैव सुज्ञानाय प्रेष्ठ।
यां त्वमापः सत्यधृतिर्बतासि त्वादृक् नो भूयान्नचिकेतः प्रष्टा॥ ९॥
शब्दार्थः प्रेष्ठ = हे परमप्रिय; एषा मतिः याम् त्वम् आपः = यह मति, जिसे तुमने प्राप्त किया है; तर्केण न आपनेया = तर्क से प्राप्त नहीं होती; अन्येन प्रोक्ता एव सुज्ञानाय = अन्य के द्वारा कहे जाने पर सुज्ञान (भली प्रकार ज्ञानप्राप्ति) के लिए; (भवति = होती है); बत = वास्तव में ही; नचिकेतः सत्यधृति असि नचिकेता, तुम सत्यधृति (श्रेष्ठ धैर्यवाला, सत्य में निष्ठावाला) हो; त्वादृक् प्रष्टा नः भूयात् = तुम्हारे जैसै प्रश्न पूछनेवाले हमें मिलें।
वचनामृत: हे परमप्रिय, यह बुद्धि, जिसे तुमने प्राप्त किया है, तर्क से प्राप्त नहीं होती। अन्य (विद्वान्) के द्वारा कहे जाने पर भली प्रकार समझ में आ सकती है। वास्तव में, नचिकेता, तुम सत्यनिष्ठ हो (अथवा सच्चे निश्चयवाले हो)। तुम्हारे सदृश जिज्ञासु हमें मिला करें।
सन्दर्भ: आत्मज्ञान बुद्धि की तर्कपूर्ण युक्तियों से प्राप्त नहीं होता।'नैषा तर्केण मतिरापनेया' को कण्ठस्थ कर लें।
दिव्यामृत: यमाचार्य कहते हैं कि मात्र तर्क करते रहने से ऐसी निर्मल बुद्धि प्राप्त नहीं होती, जो वैराग्यपूर्ण हो तथा धन-सम्पत्ति एवं सांसारिक वैभव के प्रलोभन से विचलित न हो। निर्मल बुद्धि मनुष्य को ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी बना देती है। सांसारिक सुखभोग के आकर्षण एवं मोह में फँसी हुई बुद्धि में एकाग्रता एवं दृढ़ता नहीं होती। आध्यात्मिक ज्ञान अत्यन्त गूढ़ अर्थात् रहस्यपूर्ण होता है तथा सत्यनिष्ठ मनुष्य उच्चस्तरीय चेतना में स्थित होकर ही इसे प्राप्त करने का अधिकारी हो सकता है। विशुद्ध बुद्धि इसके लिए अपेक्षित आवश्यकता होती है।
मात्र तर्क द्वारा आत्मतत्त्व को नहीं समझा जा सकता है। तर्क की एक सीमा होती है तथा परमात्मा तर्कातीत (तर्क से परे) है। परमात्मा अतर्क्य है। १ वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म है तथा तर्कपूर्ण युक्तियों से न उसके अस्तित्व को प्रमाणित किया जा सकता है, न उसका ग्रहण ही किया जा सकता है। तर्क अप्रतिष्ठ होता है अर्थात् मात्र तर्क से तत्त्व की प्रस्थापना करना संभव नहीं है। २
प्रायः तर्क में शब्दों की भरमार होती है तथा केवल तर्क का आधार जिज्ञासु को तत्त्व के ग्रहण से दूर कर देता है। ३ परमात्म-तत्त्व तर्कों से परे है।
वह अनुभव और आन्तरिक अनुभूति से सहज सुलभ है। अनुमान और तर्क प्रमाण के साधारण साधन हैं। आन्तरिक अनुभूति श्रेष्ठ प्रमाण होती है। गहन आन्तरिक अनुभूति को शिरोधार्य करना चाहिए। ४
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१. राम अतर्क्य बुद्धि मन बानी, मत हमार अस सुनहु सयानी।
२. तर्कोप्रतिष्ठः।
३. शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नात् ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञैस्तत्त्वमात्मनः॥ (विवेकचूडामणि ६२)
—शङ्कराचार्य कहते हैं कि ग्रन्थों का शब्दजाल चित्त को भटकानेवाला घना जंगल होता है। अतः मनुष्य को सबसे दूर हटकर आत्मतत्त्व को जानने का प्रयत्न करना चाहिए।
४. कार्ल जुंग कहता है कि हमें आन्तरिक अनुभूति के महत्त्व को स्वीकार करना चाहिए। कान्ट को Critique of Pure Reason के बाद Critique of Practical Reason लिखना पड़ा.
वास्तव में उचित तर्क ही मनुष्य को तर्कातीत अवस्था की ओर ले जाता है और अनुभव-प्रमाण की सर्वोच्चता को सिद्ध कर देता है। सूक्ष्मबुद्धि अथवा सूक्ष्म दृष्टि होने पर ही सूक्ष्म तत्त्व का अनुभव होना संभव होता है। १
जानाम्यहं शेवधिरित्यनित्यं न ह्यध्रुवैः प्राप्यते हि ध्रुवं तत्।
ततो मया नाचिकेतश्चितोमन्गिरनित्यैर्द्रव्यैः प्राप्तवानस्मि नित्यम्॥ १०॥
शब्दार्थ: अहं जानामि = मैं जानता हूँ; शेवधिः = धननिधि, कर्मफलरूप प्राप्त निधि; अनित्यम् इति = अनित्य है; हि अध्रुवैः = क्योंकि अध्रुव (विनाशशील) वस्तुओं से; तत् ध्रुवम् = वह नित्य तत्त्व; हि न प्राप्यते = निश्चय ही प्राप्त नहीं हो सकता; ततः = अतएव, तथापि; मया = मेरे द्वारा; अनित्यैः द्रव्यैः = अनित्य पदार्थों से; नाचिकेतः अग्निः चितः = नाचिकेतनात्मक अग्नि का चयन किया गया; (और उसके द्वारा) नित्यम् प्राप्तवान् अस्मि = मैं नित्य को प्राप्त हो गया हूँ.
वचनामृत: मैं जानता हूँ कि धन अनित्य है। निश्चय ही अनित्य वस्तुओं से नित्य वस्तु को प्राप्त नहीं किया जा सकता। तथापि मेरे द्वारा अनित्य पदार्थों के द्वारा नाचिकेत अग्नि का चयन किया गया और (उसके बाद) मैं नित्यप्रद को प्राप्त है गया हूँ।
सन्दर्भ: इस मंत्र के अनेक अर्थ किये गये हैं। मैक्समूलर और ह्यूम आदि ने तो इसे नचिकेता की उक्ति कह दिया, जो अत्यन्त भ्रान्त है।'नित्यम् प्राप्तवान् अस्मि' का अर्थ यह भी किया गया—मैंने मनुष्यपद की अपेक्षा अधिक नित्य देवत्वपद को प्राप्त कर लिया। यह उक्ति यमाचार्य की ही है।
दिव्यामृत: विनाशशील वस्तुओं तथा धन के आकर्षण एवं मोह में फँसकर मनुष्य नित्य तत्त्व परमात्मा की प्राप्ति से विमुख हो जाता है। दान आदि पुण्यकर्मों के फलस्वरूप प्राप्त सुख भी क्षणिक अथवा नश्वर ही होते हैं। उनसे भी आत्मसाक्षात्कार का लाभ संभव नहीं होता। यज्ञादि के फल भी अनित्य, अस्थायी होते हैं।
कर्म के दो अर्थ होते हैं—साधारण कर्म तथा यज्ञ आदि कर्मकाण्ड। कर्तव्य-कर्म और कर्मकाण्ड का उद्देश्य चित्तशुद्धि होता है। चित्तशुद्धि होने पर, बुद्धि के निर्मल होने पर, अपने भीतर ही परमात्मा का दर्शन हो जाता है, जैसे मेघ हटने पर सूर्य का दर्शन हो जाता है। परमात्मा तो हमारे भीतर ही निरन्तर प्रकाशमान है, किन्तु अहंकार,
१. सूक्ष्मया सूक्ष्मदर्शिभः। (कठ०, १.३.१२)
कामना आदि दोषों के दूर होने पर अर्थात् चित्तशुद्धि होने पर परमात्मा का दर्शन एवं उसकी अनुभूति हो जाते हैं। इस प्रकार निष्काम भाव से किये हुए कर्म एवं कर्मकाण्ड भगवत्प्राप्ति के साधन हो जाते हैं। १
यमराज ने नश्वर पदार्थों से नाचिकेत अग्नि के चयन और यज्ञादि किए किन्तु कर्तव्यभावना से तथा निष्काम (अनासक्त) होकर किए। परिणामतः यमराज ने परमात्मा को प्राप्त कर लिया। मनुष्य निष्कामभाव से सम्पन्न कर्तव्यकर्म द्वारा चित्तशुद्धि होने पर परमात्मा को प्राप्त हो जाता है। निष्कामभाव से अथवा अनासक्त होकर कर्म करने पर वह कल्याणकारक हो जाता है। भगवद्भाव में स्थित होकर, अध्यात्मबुद्धि से, अपने कर्मों का समर्पण करने से, मनुष्य मानो कर्म द्वारा भगवान् की अर्चना कर लेता है और उसका भगवान् के साथ योग हो जाता है। १
कामस्याप्तिं जगतः प्रतिष्ठां क्रतोरनन्त्यमभयस्य पारम्।
स्योममहदुरुगायं प्रतिष्ठां दृष्टवा धृत्या धीरो नचिकेतोत्यस्त्राक्षीः॥ ११॥
शब्दार्थ: नचिकेत: = हे नचिकेता; कामस्य आप्तिम् = भोग-विलास की प्राप्ति को; जगत: प्रतिष्ठाम् = संसार की प्रतिष्ठा को, यश को; क्रतो: अनन्त्यम् =यज्ञ के फल की अनन्तता को; अभयस्य पारम् = निर्भीकता की सीमा को; स्तोममहत् = स्तुति के योग्य और महान्; उरुगायम् = वेदों में जिसके गुण गाए गए हैं; (अथवा, स्तोमम् = स्तुति एवं प्रशंसा को; महत् उरुगायम् = महान् स्तुतिसहित जयजयकार के गान को); प्रतिष्ठाम् = दीर्घ काल तक स्थिति, स्थिर रहने की स्थिति; दृष्ट्वा = देखकर, सोचकर; धृत्या = धृति से धैर्य से; धीरः = ज्ञानी तुमने; अत्यस्त्राक्षीः= छोड़ दिया।
वचनामृत्: हे नचिकेता, तुमने भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाले स्वर्ग को (अथवा भोग-ऐश्वर्य की प्राप्ति को), यज्ञ की अनन्तता (अनन्त फल) से प्राप्त स्वर्ग को (अथवा यज्ञ के अनन्त फल को), निर्भीकता की पराकाष्ठावाले स्वर्ग को (अथवा निर्भीकता की पराकाष्ठा को), स्तुति को
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१. कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः (गीता, ३.२०)—जनक आदि ने निष्काम कर्म के माध्यम से ही सिद्धता प्राप्त की।
२ योगिनः कर्म कुर्वन्ति सङ्ग त्यक्त्वात्मशुद्धये (गीता, ५.११)—योगी आसक्ति त्यागकर, निष्काम होकर, अपनी चित्तशुद्धि के लिए कर्म करते हैं।
मनःप्रसादे, परमात्मदर्शनम् (विवेकचूडामणि)—मन के निर्मल होने पर पमात्मा का दर्शन हो जाता है।
मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्यात्मचेतसा (गीता, ३.३०)—भगवान् को सब कर्मों का अर्पण करके अध्यात्मभाव से कर्तव्यकर्म करते रहें।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः (गीता, १८.४६)—अपने कर्मों द्वारा अर्चना करने से मनुष्य सिद्धि प्राप्त कर लेता है।
योग्य एवं महान् और वेदों में जिसका गुणगान है ऐसे स्वर्ग को, स्थिर स्थितिवाले स्वर्ग को (अथवा लोकप्रतिष्ठा को), धीर होकर, विचार करके छोड़ दिया है (तुमने स्वर्ग का मोह छोड़ दिया है)।
सन्दर्भ: यमाचार्य नचिकेता के वैराग्यभाव की प्रशंसा करके से ब्रह्मविद्या का उत्तम अधिकारी घोषित करते हैं। (इस मंत्र के अनेक अर्थ किए गए हैं। )
दिव्यामृत: अधिकांश मनुष्य अपने सारे जीवनकाल में भोगैश्वर्य से प्रलुब्ध रहकर भोग-विलास की सामग्री के अर्जन और संग्रह में व्यस्त और व्यग्र रहते हैं। उनके लिए धन-प्राप्ति से बढ़कर कुछ नहीं होता। प्रायः मनुष्य तीन एषणाओं से ग्रस्त रहते हैं—पुत्रैषणा अर्थात् पुत्र र परिवार की संवृद्धि की एषणा (कामना), लोकैषणा अर्थात् लोक में पूजित होने की एषणा, सत्ता, यश और प्रतिष्ठा की एषणा तथा वित्तैषणा—धन तथा भोगैश्वर्य की सामग्री की एषणा। अनेक मनुष्य अनन्त फल देनेवाले अनन्त यज्ञ करते हैं। अनेक मनुष्य निर्भयता की सीमा को प्राप्त करने की कामना करते हैं। अभय की सीमा के लिए वे स्वर्गलोक की प्राप्ति की कामना करते हैं। स्वर्गलोक अनन्त सुखभोगों की चरम सीमा के रूप में प्रख्यात है तथा अनेक मनुष्य सदा सुखमय रहने की कामना से प्रेरित होकर उसकी प्राप्ति के लिए तप, दान और यज्ञ करते हैं। प्रायः मनुष्य अपने स्तुतिगान के लिए लालायित रहते हैं तथा अपनी जयजयकार के गान की कामना करते हैं। सभी लोक में अपनी प्रतिष्ठा अर्थात् सम्मान तथा दीर्घकाल तक स्थिर स्थिति (आधार) की कामना करते हैं। स्वर्ग को भी दीर्घ काल तक स्थिति का आधार कहा जाता है। भाव यह है कि प्रायः सभी मनुष्य सदा सुख और सम्मान-प्राप्ति की कामना करते हैं। संसार के भौतिक सुखभोगों की कामना से ग्रस्त होने के कारण मनुष्य जगत्प्रपंच में फँसा रहता है तथा अपने भीतर ही संस्थित परमात्मा की ओर अभिमुख नहीं होता तथा परमानन्द की अनुभूति नहीं कर पाता। यह मनुष्य का परम दुर्भाग्य होता है कि वह कामनापूर्ति की मृगतृष्णा में भटकते हुए अमूल्य जीवन को विनष्ट कर देता है। विवेकी पुरुष क्षणिक एवं तुच्छ दैहिक सुखों के कुचक्र में नहीं फँसते तथा जीवन के उच्चतर उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए उनका त्याग कर देते हैं।
नचिकेता धीर है अर्थात् ब्रह्मज्ञान के प्रति उसकी सच्ची निष्ठा है। उसमें अदम्य जिज्ञासा तथा असाधारण वैराग्यभाव है, जो ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के लिए अत्यावश्यक होते हैं। उसने स्वर्ग के वैभव को भी तुच्छ समझ लिया तथा अपनी प्रतिष्ठा एवं जयजयकार को भी महत्त्वहीन एवं हेय मान लिया। यमाचार्य उसकी सत्पात्रता देखकर चकित हो गए और उन्होंने उसकी अनेक प्रकार से प्रशंसा की।
गुरु-शिष्य में आन्तरिक तारतम्य स्थापित हो गया तथा यमाचार्य ने उपदेश का प्रारंभ कर दिया।
तं दुर्दर्शं गूढमनुप्रविष्टं गुहाहितं गव्हरेष्ठं पुराणम्।
अध्यात्मयोगाधिगमेन देवं मत्वा धीरो हर्षशोकौ जहाति॥ १२॥
शब्दार्थ: तम् दुर्दर्शम् = उस कठिनता से जानने के योग्य; गूढम्=अप्रत्यक्ष, छिपे हुए; अनुप्रविष्टम् =भीतर प्रविष्ट, सर्वत्र विद्यमान, सर्वव्यापी, सबके अन्तर्यामी; गुहाहितम् = (हृदयरूपी) गुहा में स्थित; गव्हरेष्ठम् = गव्हर मॆं रहनेवाला, गहरे प्रदेश में अर्थात् हृदयकमल में रहनेवाला, अथवा संसाररूपी गव्हर में रहनेवाला; पुराणम् = सनातन, पुरातन; अध्यात्मयोग अधिगमेन = अध्यात्मयोग (आत्मज्ञान) की प्राप्ति अथवा उसकी ओर गति होने से, अन्तर्मुखी वृत्ति होने से; देवम् = दिव्यगुणों से संपन्न, द्युतिमान्, परमात्मा को; मत्वा = मनन कर, समझकर; धीर: = ज्ञानी, विद्वान्; हर्षशोकौ जहाति = हर्ष और शोक (सुख-दुःख) को छोड़ देता है।
वचनामृत: उस दुर्दर्श (दर्शन में कठिन, जानने में कठिन), गूढ (छिपे हुए, अदृश्य), सर्वत्र विद्यमान (सर्वव्यापी), बुद्धिरूप गुहा में स्थित, हृदयरूप गव्हर में (अथवा संसाररूप गहन गव्हर में) रहनेवाले, सनातन देव (परमात्मा) को अध्यात्मयोग की प्राप्ति के द्वारा, मनन कर (समझकर), धीर पुरुष हर्ष और शोक को छोड़ देता है।
सन्दर्भ: इस मंत्र से यमाचार्य के उपदेश का प्रारंभ होता है। मंत्र १२, १३ अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं तथा परस्पर जुड़े हुए हैं।
दिव्यामृत: प्रकृति ने विकासक्रम में सर्वोच्च मनुष्य को बुद्धि प्रदान कर दी, जिससे वह चिन्तन-मनन द्वारा पुण्य और पाप, भले और बुरे, सुन्दर और बीभत्स, सत्य और असत्य का भेद कर सके तथा संसार में विषयभोगों के सागर को विवेकपूर्वक पार करके और भौतिक सुखभोगों की क्षणभंगुरता एवं निस्साहस को देखकर तथा अन्तर्मुखी होकर अपने भीतर ही स्थित परमात्मा की दिव्यानुभूति प्राप्त कर सकता है।
ऐसे महापुरुष, जो संसार के अनेकानेक आकर्षणों एवं प्रलोभनों से मुक्त होकर आत्मसाक्षात्कार की राह पर चल पड़ते हैं, धीर पुरुष कहलाते हैं। उद्दालक ऋषि के पुत्र नचिकेता ने अल्पायु में ही भौतिक सुखों एवं वैभवों की निस्सारता को देख लिया तथा वह उत्कट जिज्ञासा एवं प्रखर वैराग्यभाव से सम्पन्न होकर ब्रह्मविद्या-प्राप्ति के लिए तत्पर हो गया। नचिकेता को ब्रह्मविद्या का अधिकारी मानकर यमराज ने उसे 'धीर' कह दिया।
ब्रह्मविद्या तथा ब्रह्म की अनुभूति के द्वार सबके लिए समान रूप से खुले हुए हैं, किन्तु अधिकारी पुरुष ही इस क्षेत्र में प्रवेश कर सकत हैं। इसके लिए अदम्य जिज्ञासा, वैराग्यभाव तथा श्रद्धा की प्रमुख आवश्यकता होती है तथा शास्त्रीय ज्ञान गौण होता है।
परब्रह्म परमात्मा दुर्दर्श होता है अर्थात् उसका दर्शन एवं अनुभव अत्यधिक कठिन होता है। वह इन्दियगोचर नहीं होता तथा वह बुद्धिगम्य भी नहीं होता। वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म होने के कारण गूढ तथा सर्वत्र अनुप्रविष्ट है अर्थात् सर्वव्यापक है।
परमात्मा मनुष्य के भीतर हृदयरूपी गुहा में बसता है। १ वह गहरे हृदय के भीतर ही सूक्ष्म अन्तराकाश में अधिष्ठित है तथा वहाँ ब्रह्म की प्राप्ति का अधिष्ठान है। ज्ञानी दहर (सूक्ष्म अन्तराकाश) में ही परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं। २ वे ध्यान में स्थित होने पर हृदयरूपी गुहा में प्रवेश करके दहर में परमात्मा की ज्योति का दर्शन करते हैं।
परमात्मा सनातन अर्थात् अनादि, अनन्त और शाश्वत है। उसे अध्यात्मयोग से प्राप्त किया जाना संभव है अर्थात् अपने भीतर ही उसका अनुभव ही सकता है। इन्द्रियों का संचालन मन से, मन का संचालन बुद्धि से और बुद्धि का संचालन आत्मा से होता है। मनुष्य अन्तर्मुखी होने पर अपने भीतर ही आत्मा का साक्षात्कार कर सकता है।
परमात्मा दिव्य है, अलौकिक है, ज्योति:स्वरूप है। धीर अर्थात् ज्ञानी पुरुष उसका मनन करते हैं तथा उसका ध्यान करते हैं। परमात्मा को प्राप्त होनेवाला महात्मा चेतना के सर्वोच्च स्तर पर स्थित रहता है तथा वह देह, मन और बुद्धि के हर्ष-शोक अर्थात् सुख-दु:ख तथा पुण्य-पाप के द्वन्द्व से ऊपर उठ जाता है। ३ ऐसा महापुरुष आनन्दावस्था में स्थित रहता
१. निहितं गुहायाम् (मुण्डक उप०, ३.१.७)
निहितं गुहायाम् (तै० उप०, २.१.१), गुहायां निहितो (श्वेत० उप०, ३.२०)
२. अस्मिन् ब्रह्मपुरे दहरं पुण्डरीकं वेश्म दहरोस्मिन् अन्तराकाशः तस्मिन् यदन्तः तद् अन्वेष्टव्यम् (छ० उप०, ८.१.१)
—इस ब्रह्मपुर में (शरीर के भीतर, हृदय के अन्दर) स्थित दहरनामक कमल जैसे सूक्ष्म आकाश में ब्रह्म का (अथवा उसकी प्राप्ति का) अधिष्ठान है।
हृदि सर्वस्य विष्ठितम् (गीता, १३.१७)
सर्वस्य चाहं हृदिसन्निविष्टो (गीता, १५.१५)
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेर्जुन तिष्ठति (गीता १८.६१)
३. तदा विद्वान् पुण्यपापे विधूय (मुण्डक उप०, ३.१.३)
है।
एतच्छ्रुत्वा सम्परिगृह्य मर्त्यः प्रवृह्य धर्म्यमणुमेतमाप्य।
स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा विवृतं सद्म नचिकेतसं मन्ये॥ १३॥
शब्दार्थ: मर्त्य: = मनुष्य; एतत् धर्म्यम् श्रुत्वा = इस धर्ममय (उपदेश) को सुनकर; सम्परिगृह्यि = भली प्रकार से धारण (ग्रहण) करके; प्रवृह्य = भली प्रकार विचार करके, विवेचना करके; एतम् अणुम् आप्य = इस सूक्ष्म (आत्मतत्त्व) को; आप्य = जानकर; स: = वह; मोदनीयम् लब्ध्वा = आनन्दस्वरूप परमात्मा को पाकर; मोदते हि = निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है; नचिकेतसम् = (तुम) नचिकेता के लिए; विवृतम् सद्म मन्ये =मैं परमधाम (ब्रह्मपुर) का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।
वचनामृत: मरणधर्मा मनुष्य इस धर्ममय उपदेश को सुनकर, धारण कर (तथा) विवेचना कर (तथा) इस सूक्ष्म आत्मतत्त्व को जानकर (इसका अनुभव कर लेता है), वह आनन्दस्वरूप परब्रह्म परमात्मा को प्राप्त कर निश्चय ही आनन्दमग्न हो जाता है। मैं नचिकेता के (तुम्हारे) लिए परमधाम का द्वार खुला हुआ मानता हूँ।
सन्दर्भ: यमाचार्य नचिकेता को ब्रह्मविद्या का अधिकारी मानते हैं।"स मोदते मोदनीयं हि लब्ध्वा" को कण्ठस्थ कर लें।
दिव्यामृत: ब्रह्मविद्या का आध्यात्मिक उपदेश मननीय होता है। कोई ज्ञानी एवं अनुभव महापुरुष ही परमात्मा-संबंधी उपदेश करने का अधिकारी होता है। कुछ ग्रन्थों का अध्ययन करके, बिना कुछ ग्रहण किये हुए ही, उपदेश करना निष्प्रभावी होता है। जिस मनुष्य ने स्वयं अनुभव नहीं किया, वह किसी जिज्ञासु को सन्तुष्ट नहीं कर सकता। अनुभवशून्य ज्ञान निरर्थक होता है।
वही जिज्ञासु आध्यात्मिक उपदेश का लाभ उठा सकता है, जिसमें उत्सुकता, वैराग्यभाव, श्रद्धा तथा विनम्रता हो। आत्मज्ञान गुढ तथा रहस्यमय होता है। मनुष्य देहाध्याय से छूटकर अर्थात् देह को आत्मा से पृथक् समझकर तथा देह के बन्धन से मुक्त होकर, आत्मा के शुद्ध, बुद्ध और मुक्त स्वरूप में स्थित होने पर परमानन्द का अनुभव कर लेता है। आत्मा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है तथा दिव्य है। जड इन्द्रियाँ, मन और बुद्धि उसका ग्रहण नहीं कर सकती। सद्गुरु से सूक्ष्म आत्मतत्त्व का उपदेश सुनकर, उत्तम शिष्य उस पर चिन्तन-मनन करके उसका ग्रहण कर लेता है। आध्यात्मिक साधना का मार्ग ही परमानन्द-प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है तथा ब्रह्मविद्या ही मरणधर्मा मनुष्य को अमृत्व प्रदान करने में सक्षम है। आनन्द का स्त्रोत एवं निधान मनुष्य के भीतर उसका आत्मा ही है। १
१. यञ्ज्ञाता मत्तो भवति स्तब्धो भवति आत्मारामो भवति। (नारदसूत्र, ६)
अन्यत्र धर्मादन्यत्राधर्मादन्यत्रास्मात्कृताकृतात्।
अन्यत्र भूताच्च भव्याच्च यत्तत्पश्यसि तद्वद॥ १४॥
शब्दार्थ: यत् तत् = जिस उस (परमात्मा) को; धर्मात् अन्यत्र अधर्मात् अन्यत्र = धर्म से अतीत (परे), अधर्म से भी अतीत; च = और; अस्मात् कृताकृतात् अन्यत्र = इस कृत और अकृत से भिन्न, कार्य और कारण से भी भिन्न, कृत-क्रिया से संपन्न, अकृत-क्रिया से संपन्न न हो; च भूतात् भव्यात् अन्यत्र =और भूत और भविष्यत् अथवा भूत, वर्तमान और भविष्यत् तीनों कालों से भी परे, भिन्न अथवा पृथक्; पश्यसि = आप जानते हैं; तत् वद = उसे कहें
वचनामृत: (नचिकेता ने कहा) आप जिस उस आत्मतत्त्व को धर्म और अधर्म से परे और कृत और अकृत से भिन्न, भूत और भविष्यत् से परे जानते हैं, उसे कहें।
सन्दर्भ: नचिकेता आत्मतत्त्व को जानना चाहता है, वह उसकी मात्र भूमिका और अपनी प्रशंसा सुनना नहीं चाहता।
दिव्यामृत: नचिकेता की उत्सुकता आत्मा के संबंध में है तथा उसे अपनी प्रशंसा सुनने में रुचि नहीं है। वह उस परमतत्त्व को जानने में उत्सुक और आतुर है जो निस्सीम है। वह परमात्मा, जो धर्म और अधर्म अथवा पुण्य और पाप से परे है तथा जो कार्य और कारण के सिद्धान्त से भी परे है और तीनों कालों से परे अर्थात् त्रिकालाबाधित, अनादि और अनन्त है, ऐसा वह अद्भुत तत्त्व क्या है? यह ब्रह्म की जिज्ञासा है। १ परब्रह्म परमात्मा नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है। वह इस दृश्यमान जगत् में सर्वत्र व्यापक होकर भी इससे परे है। बुद्धि द्वारा उसका ग्रहण तथा वाणी द्वारा उसका वर्णन करना संभव नहीं है।
सर्वे वेदा यत् पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद् वदन्ति।
यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत्॥ १५॥
शब्दार्थ: सर्वे वेदा: यत् पदम् आमनन्ति = सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं, जिस लक्ष्य की महिमा का गान करते हैं; च सर्वाणि तपांसि यत् वदन्ति = और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, वे जिसकी प्राप्ति के साधन हैं; यत् इच्छन्त: ब्रह्मचर्यं चरन्ति = जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं; तत् पदम् ते
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—जिसे जानकर मत्त हो जाता है, स्तब्ध हो जाता है, अपने भीतर रमण करता है।
मूकस्वादनवत् (नारदसूत्र, ५२)—गूँगे का गुड़ जैसा, अनिर्वचनीय सुख।
१.अथातो ब्रह्मजिज्ञासा (ब्रह्मसूत्र, १.१.१)
संग्रहेण ब्रवीमि = उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप से कहता हूँ; ओम् इति एतत् = ओम् ऐसा यह (अक्षर) है।
वचनामृत: सारे वेद जिस पद का प्रतिपादन करते हैं और सारे तप जिसकी घोषणा करते हैं, जिसकी इच्छा करते हुए (साधकगण) ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, उस पद को तुम्हारे लिए संक्षेप में कहता हूँ, ओम् ऐसा यह अक्षर है।
सन्दर्भ: = ओम् की महिमा का गान है।
दिव्यामृत: यमाचार्य नचिकेता से संक्षेप में परमपद का कथन करते हैं। सब वेद जिस परमपद का प्रतिपादन करते हैं और जिस पद की प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के कठोर तप किए जाते हैं, वह प्राप्य परमपद एक ही है। उसकी प्राप्ति के लिए ब्रह्मचर्य का पालन किया जाता है। ब्रह्मचर्य-पालन का अर्थ ब्रह्मप्राप्ति को लक्ष्य मानकर स्वाध्याय और आध्यात्मिक साधना करना है।
वह परमपद ओम् है। यह अक्षरब्रह्म तथा शब्दब्रह्म है। यह एक अक्षऱ ब्रह्म का वाचक अथवा प्रतीत है। यह तीन मूल ध्वनियों अ, उ, म्, का संयोजन है। नाम तथा नामी में अभेद होता है तथा वे एक होते हैं, नाम से नामी का उल्लेख होता है। ओम् ब्रह्म का नाम है, साक्षात् ब्रह्म ही है। ओम् की साधना करने से ब्रह्म की प्राप्ति एवं अनुभूति संभव हो जाती है। ओम प्रणव है। १ 'ॐ तत्सत्' की महिमा तथा 'ॐ' की महिमा का गान भगवद्गीता में भी किया गया है। ओम् का उच्चारण करके यज्ञ-दान-तप आदि का प्रारंभ किया जाता है। २ अनेक उपनिषदों में अनेक स्थानों पर ओम् के अद्भुत प्रभाव की चर्चा की गयी है। ३ ओंकार परब्रह्म और अपरब्रह्म
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१. तस्य वाचक: प्रणव: (योगदर्शन, १.२७)—ॐ परमात्मा का वाचक है।
२. ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविधः स्मृतः।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिताः पुरा॥ (गीता, १७.२३)
तस्मादेमित्युदाहत्य यज्ञदानतपःक्रियाः।
प्रवर्तन्ते विधानोक्ता: सततं ब्रह्मवादिनाम्॥ (गीता, १७.२४)
३. ओमित्येतदक्षर मुद्गीथमुपासीत।
ओमिति हि उद्गयति तस्योपव्याख्यानम्॥ (छान्दोग्य उप०, १.१.१.)
—ॐ परब्रह्म का प्रतीक है। ॐ कहकर उद्गान करता है। उद्गाता ॐ इस अक्षर से प्रारंभ करके उद्गान करता है। ॐकार उद्गीथ है। ॐ उद्गीथसंज्ञक प्रकृत अक्षर है। इससे परमात्मा की अपचिति (उपासना) होती है। तेनेयं.…रसेन (छान्दोग्य उप०, १.१.९) इसकी अर्चना परमात्मा की ही अर्चना है।
है। इसकी तीन मात्राओं की उपासना के पृथक्-पृथक् अनेक फल हैं। १ ॐ ब्रह्म है, ॐ समस्त जगत् है। ॐ से ब्रह्म को प्राप्त करता है। २
हरि: ॐ का उच्चारण परमात्मा का स्मरण है। ३ ॐ का उच्चारण करके उपनिषदों का प्रारंभ किया जाता है।
ॐ ऐसा यह अक्षर है अर्थात् अविनाशी परमात्मा है। यह सम्पूर्ण जगत् उसका ही उपव्याख्यान अर्थात् उसकी ही महिमा का गान है। जो भूत, वर्तमान, भविष्यत् है, वह सब ओंकार है तथा त्रिकालातीत इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। ४
ध्यानयोग में ॐ को धनुष, आत्मा को बाम मानकर तथा परब्रह्म परमात्मा को लक्ष्य मानकर वेधन करने अर्थात् ॐ के सहारे से आत्मा को परमात्मा में निमग्न करने का उपदेश किया गया है। ५
यदि मनुष्य अपने जीवन में ॐ का जप तथा उसकी उपासना करता है तथा अन्तकाल में एकाक्षर ब्रह्म ॐ का जप करते हुए प्राणविसर्जन करता है, वह परमगति को प्राप्त होता है। ६
ओम् की लयपूर्ण (आरोह-अवरोह, स्वरसंक्रमसहित) ध्वनि शंख-ध्वनि के सदृश होती है तथा वह महाविस्फोट की महाध्वनि की प्रतिध्वनि है, जिससे सृष्टि का प्रारम्भ हुआ था तथा उससे असाध्य रोगों की सफल चिकित्सा होना संभव है। ७ श्रीकृष्ण के पाञ्चजन्य शंखनाद की ध्वनि में मेघों की गड़गड़ाहट के समान ऐसा अद्भुत कम्पन था, जो शत्रु- के महारथियों के हृदयों को विदीर्ण कर देता था। श्रीकृष्ण की वंशी की सप्ततारक ध्वनि में भी वही दिव्य आकर्षण था, जिसमें वशीकरण की
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१. परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः। …स यद्येकमात्रमभिध्यायीत स तेनैव…संवेदितस्तूर्णमेव जगत्यामभिसंपद्यते। तमृचो मनुष्यलोकमुपनयन्ते स तत्र तपसा ब्रह्मचर्येण श्रद्धया समपन्नो महिमानमनुभवति। (प्रश्नोपनिषद्, ५)
२. ओमिति ब्रह्म ओमितीदं सर्वम्…ब्रह्मैवोपाप्रोति। (तैत्ति० उप०, १.८)
३. हरिः ॐ ब्रह्मवादिनो वदन्ति (श्वेताश्वतर उप०, १.१)
४. ओमित्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवत् भविष्यत् इति सर्वमोङ्कार एव।
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव। (माण्डूक्य उप०, १)
५. प्रणवोधनुः शरो ह्यात्मा ब्रह्म तल्ल्क्ष्यमुच्यते।
अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत्॥ (मुण्डक उप०, २.२.४)
६. ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्॥
यः प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥ (गीता, ८.१३)
७. सृष्टि के आदि के जो भयंकर महाविस्फोट हुआ, उसकी लयात्मक अनुगूँज सृष्टि की समस्त गतिमयता का आधार है तथा वह सृष्टि के अन्त तक निरन्तर प्रवहमान रहेगी। (हमने ध्यानयोग में इसका रहस्यमय अनुभव किया तथा इसको ग्रहण कर तथा संकेन्द्रित कर, इसके अनेक सफल प्रयोग किए। यह गवेषण का विषय है। )
अद्भुत क्षमता थी.
ओम् का जप, ध्यान और उसकी उपासना निस्सन्देह ब्रह्मप्राप्ति एवं ब्रह्मानन्द की अनुभूति का उत्तम साधन है।
एतद्धेवाक्षरं ब्रह्म एतद्धेवाक्षरं परम्।
एतद्धेवाक्षरं ज्ञात्वा यो यदिच्छति तस्य तत्॥ १६॥
शब्दार्थ: एतत् अक्षरम् एव हि ब्रह्म = अक्षर ही तो (निश्चयरूप से) ब्रह्म है; एतत् अक्षरम् एव हि परम = यह अक्षर ही तो (निश्चयरूप से) परब्रह्म है; हि एतत् एव अक्षरम् ज्ञात्वा = इसीलिए इसी अक्षर को जानकर; य: यत् इच्छति तस्य तत् =जो जिसकी इच्छा करता है, उसको वही (मिल जाता है)।
वचनामृत: यह अक्षर ही तो ब्रह्म है, यह अक्षर ही परब्रह्म है। इसीलिए इसी अक्षर को जानकर जो जिसकी इच्छा करता है, उसे वही मिल जाता है।
सन्दर्भ: ॐ की महिमा का गान किया गया है।
दिव्यामृत: ॐ ब्रह्म का वाचक अविनाशी अक्षर है तथा ब्रह्म ही है। १ यह सोपाधि ब्रह्म और परब्रह्म (अथवा अपर ब्रह्म और ब्रह्म) दोनों का द्योतक है। ॐ की उपासना और साधना करके, इसके गूढ (रहस्यपूर्ण) स्वरूप को समझकर, मनुष्य सिद्ध पुरुष हो जाता है तथा लौकिक (भौतिक) एवं पारलौकिक (आध्यात्मिक) संकल्पों को पूर्ति में समर्थ हो जाता है। इस महान् अक्षर का वर्णन विश्व के अनेक प्रचलित धर्मों में अनेक प्रकार से किया गया है। २
ब्रह्म एक ही है, वह अद्वैत है। किन्तु दार्शनिक दृष्टि से अपरब्रह्म और परब्रह्म दो रूप हैं। मायारहित, शुद्ध ब्रह्म को परब्रह्म तथा मायासहित
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१.शब्द और अर्थ सम्पृक्त होते हैं, पृथक् नहीं किए जा सकते हैं। कालिदास कहते हैं—"वागर्थाविव संपृक्तौ" वाक् और अर्थ की भाँति संपृक्त (पार्वती और शिव)।"गिरा अर्थ जल वीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न" वाणी और अर्थ जल और वीचि (लहर) की भाँति अभिन्न (सीता और राम) यद्यपि देखने में भिन्न हैं। ॐ अपने लक्ष्यभूत ब्रह्म से भिन्न नहीं है तथा दोनों एक ही हैं।
२. " In the beginning was the Word, and the Word was with God, and the Word was God." (Bible, १.१)
सन्त जॉन ने कहा— 'प्रारंभ में शब्द था, वह शब्द परमात्मा के साथ था, और वह शब्द ही परमात्मा था।' यही लौगोस (Lgs) अथवा शब्द है।
ब्रह्म को अपरब्रह्म कह दिया जाता है। ॐ से दोनों परिलक्षित होते हैं१
एतदालम्बनं श्रेष्ठमेतदालम्बनं परम्।
एतदावम्बनं ज्ञात्वा ब्रह्मलोके महीयते॥ १७॥
शब्दार्थ: एतत् श्रेष्ठम् आलम्बनम् = यह श्रेष्ठ आलम्बन है, आश्रय, सहारा है; एतत् परम् आलम्बनम् = यह सर्वोच्च आलम्बन है; एतत् आलम्बनम् ज्ञात्वा = इस आलम्बन को जानकर; ब्रह्मलोके महीयते = ब्रह्मलोक में महिमान्वित होता है।
वचनामृत: ॐकार ही श्रेष्ठ आलम्बन है, ॐकार सर्वोच्च (अन्तिम) आलम्बन अथवा आश्रय है। इस आलम्बन को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक में महिमामय होता है।
सन्दर्भ: ॐकार मनुष्य का श्रेष्ठ आलम्बन है।
दिव्यामृत: भारतीय मूल के समस्त धर्मों में ॐ को मङ्गलदाता एवं अमङ्गलहर्ता माना जाता है। यह मनुष्य की वाणी की स्वाभाविक एवं सहज महिमामय विस्फोट है। यह विश्व की सूक्ष्म एवं दिव्य परमसत्ता का वाचक अथवा प्रतीत है। वाचक और वाच्य अथवा नाम और नामी एक होते हैं। ॐकार भगवत्प्राप्ति का माध्यम अथवा सोपान है। यह मनुष्य का श्रेष्ठ आलम्बन है। वास्तव में अपने भीतर संस्थित परमात्मा ही मनुष्य की अन्तिम तथा सर्वोच्च आलम्बन (आश्रय, सहारा) है। प्रतीक को माध्यम मानने के कारण ॐ मनुष्य का स्थायी और श्रेष्ठ आलम्बन है। संसार के सारे अवलम्बन अस्थिर और अस्थायी होते हैं। केवल परमात्मा का सहारा ही सच्चा सहारा होता है। संसार कर्मभूमि है तथा मनुष्य को पुरुषार्थ भी करना चाहिए, किन्तु दृढ आलम्बन तो परमात्मा और उसके नाम का ही होता है।
ॐ की महिमा को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक को प्राप्त हो जाता है। सभी उपनिषदों में कहा गया है कि ब्रह्म को जानकर मनुष्य ब्रह्मलोक का अधिकारी हो जाता है अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है। २ ब्रह्म का उपासक
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१. परं चापरं च यदोङ्कार: (प्रश्न उप०, ५)—पर और अपरब्रह्म ओंकार है। अ उ म् को ईश्वर, जीव, प्रकृति, सत्त्व, रज, तम, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तीन वेद (वेदत्रयी), स्थूल, सूक्ष्म, कारणशरीर, कर्म, भक्ति, ज्ञान आदि के संयोजन का प्रतीक भी कहा गया है।
२. ज्ञात्वा अथवा विदित्वा अर्थात् जानने पर अथवा ज्ञान होने पर ब्रह्म की प्राप्ति का उल्लेख सभी उपनिषदों में अनेक प्रकार से किया गया है। उसकी गणना करना अत्यन्त कठिन है।
वेदाहमेतं पुरुष महान्तमादित्यवर्णं तमस: परस्तात्।
तमेव विदित्वातिमृत्युमेति नान्य: पन्था विद्यते अयनाय॥ (यजुर्वेद, ३१.१८, श्वेत० उप०, ३.८)
— मनुष्य परमात्मा को जानकर मृत्यु को पार कर लेता है।
ब्रह्मलोक का उल्लेख भी उपनिषदों में अनेक प्रकार से तथा अनेक अर्थों में किया गया है। उसकी विस्तृत चर्चा करना भी अत्यन्त कठिन है। ब्रह्मलोक की प्राप्ति का अर्थ ब्रह्म की प्राप्ति
ब्रह्म के ज्योतिर्मय स्वरूप को प्राप्त होता है। ॐ प्रतीक है। प्रतीकोपासना लक्ष्य प्राप्ति का श्रेष्ठ माध्यम होती है।
न जायते म्रियते वा विपश्चिन्नायं कुतश्चिन्न बभूव कश्चित्।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥ १८॥
शब्दार्थ: विपश्चित् = ज्ञानस्वरूप आत्मा (आत्मा परब्रह्म परमात्मा); न जायते वा न म्रियते = न जन्म लेता है और न मरता है; अयम् न कुतश्चित् बभूत = यह न तो किसी से उत्पन्न हुआ है, न किसी उपादान कारण से उत्पन्न हुआ; (न) कश्चित् (बभूत) = (न) इससे कोई उत्पन्न हुआ है। (अयम् न कुतश्चित् बभूत, कश्चित् न बभूत— यह न किसी से, कहीं से, उत्पन्न हुआ, न यह उत्पन्न हुआ। आत्मा का जन्म नहीं हुआ, उसे दो प्रकार से कहा गया तथा यह भी एक अर्थ किया गया है। ) अयम् = यह आत्मा; अज: नित्य; शाश्वत: पुराण: = अजन्मा (जन्मरहित), नित्य, सदा एकरस रहनेवाला, सनातन (अनादि) है, (पुरातन—पुराना होकर भी नया अर्थात् सनातन); शरीरे हन्यमाने न हन्यते = शरीर को मार दिये जाने पर, नष्ट हो जाने पर, इसकी हत्या नहीं होती, इसका नाश नहीं होता।
वचनामृत: ज्ञानस्वरूप आत्मा न जन्म लेता है और न मृत्यु को प्राप्त होता है। यह न किसी का कार्य है, न किसी का कारण है। यह अजन्मा, नित्यस शाश्वत, पुरातन है। शरीर के नष्ट हो जाने पर इसका नाश नहीं होता। १
सन्दर्भ: आत्मा अजर-अमर है। आत्मा विकारी नहीं है, वह सदा एकरस है।
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करना ही विवेकसम्मत है। लोक्यते प्रकाशयते इति लोक:। प्रकाश करनेवाला लोक कहलाता
है। प्रकाशित करने के कारण ब्रह्म स्वयं भी ब्रह्मलोक है।
१ भगवद्गीता (२.२०) में भी यह मंत्र है, किन्तु वहाँ कुछ भिन्न है—
न जायते म्रियते वा कदाचित् नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
'विपश्चित्' का अर्थ विवेकशील प्राणी मानने पर कहा गया है कि ज्ञानी पुरुष ज्ञान द्वारा जन्म-मरण से ऊपर उठ जाता है तथा वह आत्मस्वरूप में संस्थित हो जाता है। वह शरीर के नष्ट होने पर भी नष्ट नहीं होता। यह 'अहं ब्रह्मास्मि' की स्थिति है। ज्ञानी मात्र द्रष्टा नहीं होता है, अहंकारशून्य। किन्तु 'विपश्चित्' का अर्थ आत्मा (ब्रह्म) ही किया जाना उचित है (तै० उप०, २.१)
दिव्यामृत: आत्मा दिव्य एवं अमूर्त है। आत्मा अज है, नित्य और शाश्वत है तथा अनादि है। देह में स्थित आत्मा परम सूक्ष्म एवं चैतन्य स्वरूप है तथा वह परमात्मा का दिव्य अंश होने के कारण परमात्मा ही है। आत्मा को परमात्मा भी कहा जाता है। मनुष्य के देहनाश होने पर भी अजर-अमर आत्मा नष्ट नहीं होता। घट फूट जाता है तथा उसके भीतर का आकाश (घटाकाश) व्यापक आकाश (महाकाश) के साथ एक हो जाता है। १
दार्शनिक दृष्टि से परब्रह्म मायारहित, शुद्ध चैतन्यस्वरूप होता है तथा न उसका जन्म होता है और न वह किसी को जन्म देता है, किन्तु अपरब्रह्म (ईश्वर) मायासहित होता है तथा दृष्टि की उत्पत्ति करता है, उसका संचालन करता है, संहार करता है और वही भक्तों का उपास्य होता है। इसी प्रकार, देह में स्थित आत्मा मायारहित, शुद्ध चैतन्यस्वरूप ही होता है, किन्तु वही मायासहित (माया से आवृत) होने पर जीवात्मा कहलाता है। २ वास्तव में शुद्ध ब्रह्म और मायासहित ब्रह्म एक ही हैं तथा देह में स्थित आत्मा अथवा जीवात्मा भी एक ही हैं। जीवो ब्रह्मैव नापर: अर्थात् मनुष्य का जीवात्मा तत्त्वत: आत्मा अथवा ब्रह्म ही है। दार्शनिक दृष्टि के पारिभाषिक भेद केवल कुछ सिद्धान्तों को समझाने के लिए ही हैं तथा वास्तव में कोई भेद नहीं है। ब्रह्म एक ही है।
हन्ता चेन्मन्यते हन्तुं हतश्चेन्मन्यते हतम्।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥ १९॥
शब्दार्थ: चेत् = यदि; हन्ता हन्तुं मन्यते = मारनेवाला (स्वयं को) मारने में समर्थ मानता है; चेत् हत: हतम् मन्यते = यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है; तौ उभौ न विजानीत:= वे दोनों नहीं जानते; अयम् न हन्ति न हन्यते = यह (आत्मा) न मारता है, न मारा जाता है।
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१. जल में कुंभ कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहि समाना, यह तथ कथ्यौ ग्यानी॥ (कबीर)
२. भूमि परत भा ढाबर पानी, जिमि जीवहि माया लपटानी। — जैसे वर्षा का शुद्ध जल भूमि पर गिरने से, मिद्टी से मिलकर कुछ अशुद्ध हो जाता है, ऐसे ही शुद्ध आत्मा माया से आवृत होकर जीवात्मा का रूप ले लेता है। जैसे अशुद्ध जल को पुनः शुद्ध किया जा सकता है, वैसे ही (तप द्वारा) जीवात्मा के माया से मुक्त होने पर वह शुद्ध चैतन्यस्वरूप आत्मा ही होता है। दोनों एक ही हैं।
वचनामृत: यदि कोई मारनेवाला स्वयं को मारने में समर्थ मानता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया मानता है, वे दोनों ही (सत्य को) नहीं जानते। यह आत्मा न मारता है, न मार दिया जाता है।
सन्दर्भ: आत्मा अविनाशी है। १
दिव्यामृत: मनुष्य का देह स्थूल पंचतत्त्वों (मिट्टी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) के संयोग से बनता है तथा वह प्राणों के निर्गमन होने पर विनष्ट हो जाता है। आत्मा मूल स्वरूप में नित्य, शुद्ध, बुद्ध और मुक्त है तथा सूक्ष्मातिसूक्ष्म है। वह अजर-अमर है तथा उसका विनाश नहीं होता। यदि कोई स्वयं को किसी के मारने में समर्थ समझता है और यदि मारा जानेवाला स्वयं को मारा गया हुआ मानता है तो वे दोनों अज्ञानी ही हैं। यह आत्मा एक शाश्वत दिव्यतत्त्व है तथा इसका विनाश संभव नहीं है। आत्मा चैतन्यस्वरूप है। वह अविनाशी, अजर और अमर है। जडतत्त्व परिवर्तनशील और विनाशशील होता है, किन्तु चेतनतत्त्व परिवर्तनरहित और शाश्वत होता है।
मनुष्य का देह मरणशील है, किन्तु यह साधना द्वारा मोक्ष का द्वार खोल देता है। देह संरक्षणीय होता है, किन्तु मनुष्य भोगैश्वर्य में फँसकर इसका दुरुपयोग कर लेता है। २ देह का सदुपयोग मनुष्य को परमात्मा की प्राप्ति करा देता है।
अणोरणीयान्महतो महीयानात्मास्य जन्तोर्निहितो गुहायाम्।
तमक्रतु: पश्यति वीतशोको धातुप्रसादान्महिमानमात्मन:॥ २०॥
शब्दार्थ: अस्य जन्तो: गुहायाम् निहितः आत्मा = इस जीवात्मा के (अथवा देहधारी मनुष्य के) हृदयरूप गुहा में निहित आत्मा (परमात्मा); अणो: अणीयान् महत: महीयान् = अणु से सूक्ष्म, महान् से भी बड़ा (है); आत्मन: तम् महिमानम् = आत्मा (परमात्मा) की उस महिमा को, उसके स्वरूप को; अक्रतु: = संकल्परहित, कामनारहित; धातुप्रसादात् = मन तथा इन्द्रियों के प्रसाद अर्थात् उनकी शुद्धता होने से; (धाता—विधाता, भगवान्;
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१.भगवद्गीता (२.१९) में यही मंत्र इस प्रकार से है—
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते॥
If the red slayer thinks he slays
Or if the slain thinks he is slain,
They know not well the subtle ways
I Keep and pass and turn again (Brahma' poem by R. W. Emerson)
२.'साधन' धाम मोक्ष कर द्वारा'
शरीरमाद्यं खलु धर्मसाधनम् (कालिदास)—शरीर धर्म का प्रथम साधन है।
धातु: प्रसादात्— भगवान् की कृपा से—यह अन्य अर्थ भी किया गया है। ) पश्यति —साक्षात् देख लेता है, स्वयं अनुभव कर लेता है; वीतशोक: = समस्त दुःखों से परे चला जाता है, परम सुखी हो जाता है। (अक्रतु: वीतशोक: धातुप्रसादात् पश्यति—निष्काम शोकरहित होकर इन्द्रियों की शुद्धि से अथवा भगवान् की कृपा से देख लेता है, यह एक भिन्न अन्वय तथा अन्वयार्थ है। )
वचनामृत: इस जीवात्मा की हृदयरूप गुहा में स्थित आत्मा (परमात्मा) अणु से भी छोटा, महान् से भी बड़ा है। परमात्मा की उस महिमा को निष्काम व्यक्ति मन तथा इन्द्रियों की निर्मलता होने पर देख लेता है और (समस्त) शोक से पार हो जाता है।
सन्दर्भ: यह मंत्र उपनिषद्-प्रेमियों को अत्यन्त प्रिय है। यह श्वेताश्वतर उपनिषद् (३.२०) में भी है।'अणोरणीयान् महतो महीयान्' को कण्ठस्थ कर लें।
दिव्यामृत: परमात्मा संसार में छोटे-से-छोटे कण से भी छोटा तथा बड़ी-से-बड़ी वस्तु से भी बड़ा (लघु से भी लघुतर, महान् से भी महत्तर) है। वह सर्वव्यापक है तथा सर्वत्र समाया हुआ है। वह समस्त सत्ता का आधार है। उसके बिना किसी की सत्ता नहीं है। वह विश्व की प्रत्येक वस्तु में विद्यमान है।
इन्द्रियों, मन और बुद्धि से युक्त तथा माया से आवृत होकर मनुष्य का आत्मा जीवात्मा के रूप में मानो बद्ध हो जाता है, किन्तु वह मुक्त होकर, माया के आवरण से मुक्त होकर, अपने मूल स्वरूप में तो शुद्ध, बुद्ध, मुक्त ही होता है। आत्मा ही परमात्मा है। बद्धावस्था में आत्मा को जीवात्मा कहा जाता है। यहाँ जीवात्मा को जन्तु कहा गया है। यद्यपि वह परब्रह्म पुरुषोत्तम के समीप ही स्थित रहता है, मायामोहवश वह उसे देखता नहीं है।
ज्ञान का उदय होने पर, ज्ञान के प्रकाश में, जीवात्मा अपने शुद्ध चेतनस्वरूप को समझकर, परमात्मा की महिमा को जान लेता है और सदा के लिए सब प्रकार के शोक अर्थात् सब प्रकार के दु:ख से मुक्त हो जाता है तथा आनन्दावस्था में स्थित हो जाता है। १
१. उपनिषदों तथा भगवद्गीता में इतने अधिक स्थानों पर वीतशोक (शोकरहित) होने तथा अक्षयसुख पाने की चर्चा है कि उनकी गणना करना कठिन है। उपनिषदों का उद्देश्य मनुष्य को भय, चिन्ता और शोक से मुक्त करके आनन्दावस्था में प्रस्थापित करना है। वीतशोक (मुण्डक उप०, ३.१.२., श्वेत० उप०, २.१४ तथा ४.७)
मनुष्य इन्द्रियों तथा मन के विषयानुरक्त अथवा विषयभोगरत होने पर अर्थात् इन्द्रियों और मन के दूषित होने पर, सत्य का दर्शन एवं अनुभव नहीं कर पाता। इन्द्रियों तथा मन के शुद्ध होने पर अर्थात् भोगौश्वर्य के आकर्षण से मुक्त होने पर, काम, क्रोध और लोभ के प्रभाव से मुक्त होने पर, मनुष्य परमात्मा की महिमा को जान सकता है तथा परमात्मा की कृपा का पात्र हो जाता है। संसार के सुख क्षणभंगुर तथा भटकानेवाले होते हैं, आध्यात्मिक सुख स्थायी और सच्चा होता है। आध्यात्मिक मनुष्य अर्थात् अन्तर्मुखी होकर परमात्मा की ओर अभिमुख होनेवाला मनुष्य ही आनन्द की प्राप्ति कर सकता है। परमात्मा मनुष्य के हृदयक्षेत्र में अधिष्ठित होने के कारण समीप ही होता है, किन्तु विषयानुरागी मनुष्य उसे नहीं देखता तथा परमात्मा की महिमा को नहीं जानता। परमात्मा के स्वरूप को देखकर अर्थात् समझकर मनुष्य वीतशोक हो जाता है। १
आसीनो दूरं व्रजति शयानो याति सर्वत:।
कस्तं मदामदं देवं मदन्यो ज्ञातुमहर्ति॥ २१॥
शब्दार्थ: आसीन: = बैठा हुआ; दूरम् व्रजति = दूर पहुँच जाता है; शयान:= सोता हुआ; सर्वत: याति = सब ओर चला जाता है; तम् मदामदम् देवम् = उस मद से युक्त होकर भी अमद (अनुन्मत्त) देव को; मदन्य: क: ज्ञातुम् अर्हित = मुझसे अतिरिक्त कौन जानने में समर्थ है?
वचनामृत: परमात्मा बैठा हुआ भी दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है, उस मद से मदान्वित न होनेवाले देव को, मुझसे अतिरिक्त कौन जानने के योग्य है?
सन्दर्भ: परमात्मा के ज्ञान का उत्तम अधिकारी होना कठिन है।
दिव्यामृत: परमात्मा की शक्ति अचिन्त्य है। उसका वर्णन परस्पर विरोधी गुणों से किया जाता है। २ परमात्मा दुर्विज्ञेय है। उसे बुद्धि के तर्कों से नहीं समझा जा सकता। परमात्मा नितान्त रहस्यमय, दिव्य सत्ता है
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१ 'पश्यति' (देखता है, अर्थात् साक्षात् अनुभव करता है) का प्रयोग उपनिषदों में अनेक स्थानों पर है। (मुण्डक उप०, ३.२ श्वेत० उप०, ४.७)
आ पश्यति प्रति पश्यति परा पश्यति पश्यति,
दिवमन्तरिक्षमाद् भूमिं सर्वं तद् देवि पश्याति॥ (अथर्व०, ४.२०.१)
—हे दवि, तू जिसे मिल जाय, वह सब कुछ दूर-दूर तक देख लेता है। यह एक श्रेष्ठ मंत्र है। अथर्ववेद के इस मंत्र के अनेक अर्थ किए गए हैं।
२.ईशावास्य उपनिषद् के मंत्र ४, ५ में भी परमात्मा को विरोधी धर्मों से युक्त अर्थात् अचिन्त्य कहा गया है।
तथा उसका ज्ञान अत्यन्त गूढ है। निस्सन्देह, आध्यात्मिक साधना करने पर अपने भीतर ही उसकी अनुभूति होती है। उसका अनुभव करने पर मनुष्य आनन्दमय हो जाता है तथा उस अनुभव का वर्णन शब्दों द्वारा करना संभव नहीं है। ग्रन्थों से प्राप्त ज्ञान पथ-प्रदर्शन कर सकता है तथा अनुभव व्यक्ति को स्वयं ही करना होता है। यात्राचित्र मार्गदर्शन करा देते हैं, किन्तु वे गन्तव्य तक नहीं पहुँचा सकते। निश्चय ही, ऐसे महापुरुष, जो परमात्मा का अनुभव कर चुके हैं, अत्यन्त सहायक हो सकते हैं।
परमात्मा मानो बैठा हुआ दूर पहुँच जाता है, सोता हुआ भी सब ओर चला जाता है। वह आनन्द के मद से पूर्ण होकर भी मदोन्मत्त नहीं होता। सन्तजन भी अकथ्य शक्तियों से भरपूर होकर शान्त और सम ही रहते हैं। परस्पर विरोधी धर्मवाले परमात्मा की महिमा को ज्ञानी महात्मा ही समझ सकते हैं।
यमाचार्य निरहंकार और निरभिमान होकर, सहज भाव से कहते हैं कि उनसे भिन्न अन्य कोई परमात्मा के स्वरूप और उसकी महिमा को नहीं जान सकता, अर्थात् परमात्मा के स्वरूप और उसकी महिमा को नहीं जान सकता, अर्थात् परमात्मा को जानना और प्राप्त होना अत्यन्त कठिन है। परमात्मा दुर्विज्ञेय है, किन्तु वह सूक्ष्म बुद्धिवाले ज्ञानी पुरुषों के लिए सुविज्ञेय है।
अशरीरं शरीरेष्वनवस्थेष्ववस्थितम्।
महान्तं विभुमात्मानं मत्वा धीरो न शोचति॥ २२॥
शब्दार्थ: अनवस्थेषु शरीरेषु = स्थिर न रहनेवाले अर्थात् विनश्वर शरीरों में; अशरीरम् = शरीररहित; अवस्थितम् = स्थित; महान्तम् विभुम् = (उस) महान् सर्वव्यापक; आत्मानम् = परमात्मा को; मत्वा = मनन करके, जानकर; धीर: = विवेकशील पुरुष, बुद्धिमान् पुरुष; न शोचति = कोई शोक नहीं करता।
वचनामृत: अस्थिर शरीरो में संस्थित (उस) महान् सर्वव्यापक परमात्मा को जानकर धीर शोक नहीं करता।
सन्दर्भ: वह सर्वव्यापक परमात्मा अपने भीतर ही संस्थित है
दिव्यामृत: परमात्मा से संचालित एवं नियंत्रित प्रकृति ने मनुष्य को चेतना-शक्ति एवं बुद्धि से संपन्न करके उसे अपने भीतर ही परमात्मा को खोजने और पाने की क्षमता प्रदान कर दी, किन्तु मनुष्य बाह्य जगत् के भौतिक आकर्षणों से प्रलुब्ध होने के कारण अपने भीतर झाँकने और परमात्मा के अस्तित्व का अनुभव करने में प्रवृत्त नहीं होता। परमात्मा विभु अर्थात् सर्वव्यापक है तथा नश्वर शरीरों में संस्थित रहता है। बुद्धिमान् मनुष्य उसे सूक्ष्म बुद्धि से जानकर उच्चस्तरीय आनन्दावस्था को प्राप्त कर लेता है तथा सदा के लिए शोकमुक्त हो जाता है अर्थात् मोह एवं शोक के प्रभाव से मुक्त हो जाता है। १
मनुष्य के अनित्य एवं विनश्वर देह में जीवन के स्त्रोत एवं आधार के रूप में घटघटवासी परमात्मा स्वयं विराजमान रहता है तथा उसे प्राप्त होना जीवन की श्रेष्ठ उपलब्धि है।
नायमात्मा प्रवचनेन लभ्यो न मेधया न बहुना श्रुतेन।
यमेवैष वृणुते तेन लभ्यस्तस्यैष आत्मा विवृणुते तनूं स्वाम्॥ २३॥
शब्दार्थ: अयम् आत्मा न प्रवचनेन न मेधया न बहुना श्रुतेन लभ्य: = आत्मा न प्रवचन से, न मेधा (बुद्धि) से, न बहुत श्रवण करने से प्राप्त होता है; यम् एष: वृणुते तेन एव लभ्य: = जिसको यह स्वीकार कर लेता है उसके द्वारा ही प्राप्त होता है; एष: आत्मा = यह आत्मा; तस्य स्वाम् तनूम् विवृणुते = उसके लिए स्व-स्वरूप को प्रकट कर देता है।
वचनामृत: यह परब्रह्म परमात्मा न तो प्रवचन से, न बुद्धि से, न बहुत श्रवण से ही प्राप्त हो सकता है। यह जिसे स्वीकार कर लेता है, उसको ही प्राप्त हो सकता है। यह परमात्मा उसे अपने स्वरूप को प्रकट कर देता है। २
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१. तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:। (ईशावास्य उप०, ७) नानुशोचितुमर्हसि (गीता, २.२५), नैवं शोचितुमर्हसि (२.२६), न त्वं शोचितुमर्हसि (२.२७, २.३०) 'शोक' का व्यापक अर्थ समस्त दुःख, भय और चिन्ता है।
२. शङ्कराचार्यजी इस मंत्र का अन्वय और अर्थ इस प्रकार करते हैं —
नायमात्मा प्रवचनेनानेकवेदस्वीकरणेन लभ्यो ज्ञेयो नापि मेधया ग्रन्थार्थधारणशक्त्या। न बहुना श्रुतेन केवलेन। केन तर्हि लभ्य इच्युच्यते—यमेव स्वात्मानमेष साधको वृणुते प्रार्थयते तेनैवात्मना वरित्रा स्वयमात्मा लभ्यो ज्ञायत एवमित्येतत्। निष्कामस्यात्मानम् एव प्रार्थयत आत्मनैवात्मा लभ्यत इत्यर्थ:। कथं लभ्यत इत्युच्यते—तस्यात्मकामस्यैष आत्मा विवृणुते प्रकाशयति पारमार्थिकीं तनूं स्वां स्वकीयां स्वयाथात्म्यम् इत्यर्थ:। यह आत्मा प्रवचन अर्थात् अनेक वेदों को स्वीकार करने से प्राप्त अर्थात् विदित होने योग्य नहीं है, न मेधा अर्थात् ग्रन्थार्थ-धारण की शक्ति से ही जाना जा सकता है और न केवल बहुत-सा श्रवण करने से ही; तो फिर किस प्रकार प्राप्त किया जा सकता है, इस पर कहते हैं—यह साधक जिस अपने आत्मा का वरण—प्रार्थना करता है, उस वरण करनेवाले आत्मा द्वारा यह आत्मा स्वयं ही प्राप्त किया जाता है, अर्थात् उससे ही 'यह ऐसा है' इस प्रकार जाना जाता है। तात्पर्य यह है कि केवल आत्मलाभ के लिए ही प्रार्थना करनेवाले निष्काम पुरुष को आत्मा के द्वारा ही आत्मा की उपलब्धि होती है। किस प्रकार वह उपलब्ध होता है, इस पर कहते हैं—उस आत्मकामी के प्रति यह आत्मा अपने पारमार्थिक स्वरूप अर्थात् अपने याथात्म्य को विवृत—प्रकाशित कर देता है।
सन्दर्भ: यह मंत्र कठोपनिषद् के श्रेष्ठ मंत्रों में परिगणित होता है। यह मुण्डक उपनिषद् (३.२.३) में भी है। इसे कण्ठस्थ कर लेना चाहिए। इसकी व्याख्या अनेक प्रकार से की गयी है।
दिव्यामृत: परमात्मा मनुष्य के भीतर ही प्राप्य है। बाह्य साधन उपयोगी तो होते हैं, किन्तु वे मनुष्य को साध्य तक नहीं पहुँचा सकते। प्रवचन अर्थात् वेदादि का अध्ययन और विवेचनापूर्ण व्याख्यान तथा चर्चा-परिचर्चा करना पर्याप्त नहीं होता। बुद्धि द्वारा परमात्म-तत्त्व को जानना संभव नहीं होता, क्योंकि परमात्मा मात्र बुद्धि का विषय नहीं है। बौद्धिक तर्क की एक सीमा होती है तथा परम सूक्ष्म तत्त्व का ग्रहण मात्र कुशाग्र बुद्धि से भी नहीं हो सकता। तर्कशील व्यक्ति तर्क-वितर्क के जाल में फँसकर उलझे रह जाते हैं और किसी निर्णय एवं निश्चय तक नहीं पहुँच पाते। तीव्र बुद्धि होने का अहंकार सत्य की प्राप्ति के मार्ग में बाधक हो जाता है। श्रुत अर्थात् विद्वत्ता से तथा ज्ञानग्रन्थों के श्रवण से भी स्थायी लाभ नहीं होता।
परमात्मा ही जिसे स्वीकार कर लेता है, उसे परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है। वास्तव में परमात्मा स्वयं ही स्वयं को प्रकट करता है। परमात्मा का दर्शन एवं अनुभव परमात्मा के प्रसाद से अथवा उसकी कृपा से ही होता है। १ किन्तु परमात्मा किसी भी उस महात्मा के लिए सुलभ हो जाता है, जो उसका अधिकारी अथवा सत्पात्र हो जाता है। परमात्मा को जानने के लिए तथा उसकी दिव्यानुभूति प्राप्त करने के लिए उत्कट इच्छा, अहंकारशून्यता, चित्त की निर्मलता तथा वैराग्यभाव मनुष्य को भगवत्कृपा का अधिकारी बना देते हैं।
सूर्य का प्रकाश तो हमारे द्वार तक स्वयं ही आता है, किन्तु द्वार खोलने पर ही हम उसका दर्शन कर सकते हैं। मन को निर्मल करने पर अथवा मन के द्वार खोल देने पर परमात्मा का दिव्य प्रकाश प्रकट हो जाता है, जो मनुष्य के हृदय की गुहा में निगूढ रहता है तथा जीवन का स्त्रोत एवं आधार होता है। २
१. सो जानइ जेहि देहु जनाई, जानत तुम्हहि तुम्हहि होइ जाई।
२. ज्ञानेन तु तदज्ञानं येषां नाशितमात्मन:।
तेषामादित्यवञ्ज्ञानं प्रकाशयति तत्परम्॥ (गीता, ५.१६)
—अज्ञान का अन्धकार निवृत्त होने पर, ज्ञान सूर्य के सदृश परमात्मा को प्रकाशित कर देता है, परमात्मा के स्वरूप का साक्षात्कार करा देता है। (अनेक प्रवचनकर्त्ता मात्र मूलग्रन्थों एवं व्याख्याग्रन्थों को पढ़कर, बिना उन्हें आत्मसात् किए हुए ही, रटकर प्रवचन करते हैं तथा प्रवचनों को मात्र लौकिक कामनापूर्ति का साधन बना लेते है। आध्यात्मिक तत्त्वों को ग्रहण करके ही अनुभवी मनुष्य सहज भाव से सार्थक एवं सुन्दर प्रवचन कर सकता है। )
श्रेष्ठ पुरुष प्रार्थना और ध्यान के अभ्यास से मन को निर्मल कर लेते हैं अर्थात् उसे राग, द्वेष आदि विकारों से मुक्त कर देते हैं तथा सुरदुर्लभ दिव्यानुभूति प्राप्त कर लेते हैं। हमारे अपने भीतर ही आनन्द का स्त्रोत एवं अक्षय कोश है तथा वह सबके लिए सदा सुलभ है। मनुष्य अपने मार्ग एवं लक्ष्य का निर्धारण एवं वरण करने में स्वतन्त्र है। दिव्य प्रकाश की एक झलक पाकर ही मनुष्य कृतकृत्य हो जाता है, उसका जीवन धन्य हो जाता है। दिव्यानुभूति होने पर भय और भ्रम निवृत्त हो जाते हैं।
सोद्देश्य मौनधारण, जप, चिन्तन और प्रार्थना द्वारा चित्त की निर्मलता होने पर मनुष्य की चेतना ऊर्ध्वमुखी हो जाती है तथा वह विश्व की विराट् चेतना में संस्थित हो जाता है। बिन्दु में सिन्धु की अनुभूति होने पर मनुष्य को आत्यन्तिक तृप्ति हो जाती है तथा उसका जीवन कृतार्थ हो जाता है।
नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहित:।
नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ २४॥
शब्दार्थ: प्रज्ञानेन अपि = सूक्ष्म बुद्धि से भी, आत्मज्ञान से भी; एनम् = इसे (परमात्मा को); न दुश्चरितात् अविरत: आप्नुयात् = न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो कुत्सित आचरण से (दुष्कर्म से) अविरल अर्थात् निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त: = न अशान्त मनुष्य (प्राप्त कर सकता है); न असमाहित: = न वह प्राप्त कर सकता है, जो असमाहित अर्थात् एकाग्र न हो, असंयत (असंयमी) हो; वा = और; न अशान्तमानस: = न अशान्त मनवाला ही (उसे प्राप्त कर सकता है); आप्नुयात् = प्राप्त कर सकता है। (प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्—प्रज्ञान से इसे प्राप्त किया जा सकता है, यह एक अन्य अर्थ है। )
वचनामृत: इसे (परमात्मा को) सूक्ष्म बुद्धि अथवा आत्मज्ञान से भी न वह मनुष्य प्राप्त कर सकता है, जो दुराचार से निवृत्त न हुआ हो; न अशान्त व्यक्ति ही उसे प्राप्त कर सकता है, जो असंयत हो और न अशान्त मनवाला ही उसे प्राप्त कर सकता है। (एक अन्य अर्थ है कि प्रज्ञान से ही परमात्मा को प्राप्त कर सकता है। )
सन्दर्भ: परमात्मा की प्राप्ति के लिए उसका अधिकारी होना आवश्यक है। नैतिकता अध्यात्म-मार्ग का प्रथम सोपान है। अनैतिक एवं कुमार्गगामी सत्पात्र नहीं होता। यह मंत्र अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में यह मंत्र पूर्ववर्ती मंत्र २३ के साथ जुड़ा हुआ अथवा उसका पूरक है।
दिव्यामृत:मनुष्य दुष्कर्म में प्रवृत्त रहकर कभी गहन शान्ति का अनुभव नहीं कर सकता और जिसका मन शान्त नहीं है, वह न सांसारिक सुख का अनुभव कर सकता है और न आध्यात्मिक आनन्द का ही। वास्तव में अशान्त रहनेवाला व्यक्ति जीवन में कोई महत्त्वपूर्ण उपलब्धि नहीं कर सकता।
जिस मनुष्य का मन भौतिक सुखभोग की वासना तथा सांसारिक पदार्थों की तृष्णा से ग्रस्त रहता है, जिसका मन राग और द्वेष में फँसा रहता है और भौतिक आकर्षणो के बन्धन में रहता है, वह सदा अशान्त ही रहता है। अशान्ति के मार्ग पर चलकर मनुष्य शान्ति कैसे प्राप्त कर सकता है?
वास्तव में मनुष्य के मन और इन्द्रियों की चंचलता उसे शान्त नहीं रहने देती। जिसका मन शान्त और समाहित नहीं होता, वह स्थिर और एकाग्र भी नहीं हो सकता। ऐसा व्यक्ति सांसारिक सुखभोगों को प्राप्त करके भी दुःखी रहता है।
परमात्मा मनुष्य के भीतर हृदय में ही विराजमान रहता है, किन्तु सदा सुलभ और समीप होने पर भी वह दर्लभ और दूर रहता है। मनुष्य समाहित और शान्त होकर अपने भीतर ही उसकी दिव्यता का अनुभव कर सकता है।
जिस मनुष्य का मन भोगासक्ति के कारण सत्य के मार्ग को छोड़कर दुष्कर्मों में प्रवृत्त हो जाता है, वह तीर्थयात्रा, व्रत, दान, पूजा-पाठ आदि करके भी अशान्त अथवा उद्विग्न ही रहता है।
दुष्कर्म (अनैतिक कर्म) मनुष्य के मन में अपराध-बोध उत्पन्न कर देते हैं तथा मनुष्य अपने भीतर अशान्त और दु:खी रहने लगता है। उसे जीवन भारमय एवं दुःखमय प्रतीत होने लगता है। चारित्रिक गुणों (सच्चाई, ईमानदारी) को छोड़ने पर अन्य सब उपलब्धियाँ (विद्वत्ता, धनार्जन, सत्ता और सम्मान के पदों पर आसीन होना इत्यादि) विषमय अर्थात् अशान्तिप्रिय सिद्ध होते हैं। चारित्रिक गुणों (नैतिक मूल्यों) की कीमत पर महान् सफलता अथवा उपलब्धि भी सच्चा सुख नहीं दे सकती। रेत की दीवार कदापि स्थिर नहीं रहती।
दुष्कर्षों में प्रवृत्त रहनेवाला मनुष्य केवल ज्ञान के माध्यम से ही परमात्मा को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसका मन अनेक प्रकार के विकारों, दोषों तथा चिन्ताओं से ग्रस्त रहता है और उसमें शान्ति एवं एकाग्रता नहीं होते। वह अन्तर्मुखी नहीं होता। दुष्कर्म में प्रवृत्त, अशान्त मनुष्य परमात्मा को कदापि प्राप्त नहीं कर सकता। १ अशान्त मनुष्य ब्रह्मज्ञान का अधिकारी नहीं होता। २
मनुष्य को अपने मन को दिशा बदलकर, दृढता से भी उन सभी दुष्कर्मों का त्याग कर देना चाहिए, जो उसे परमात्मा से विमुख करते हों और घोर अशान्ति एवं दु:ख उत्पन्न करते हों। साधारण अशान्ति तो मानव-स्वभाव का अंग है तथा केवल योगी ही सदा शान्त रहते हैं, किन्तु दुष्कर्म में रत मनुष्य अत्यधिक अशान्त अथवा उद्विग्न रहते हैं। दुष्कर्म को त्यागकर परमात्मा की शरण में जाने पर मनुष्य परम शान्त हो जाता है। अविचल शांति में स्थित होकर मनुष्य सत्य का संदर्शन करता है। ३
आध्यात्मिक मार्ग के पथिक को आचरण में उत्कृष्ट रहना चाहिए तथा दुष्कर्मों से विरत होकर, सच्चे मन से भगवत्प्राप्ति की दिशा में प्रवृत्त होना चाहिए, क्योंकि दुष्कर्मों में रत रहकर वह प्रखरबुद्धि होते हुए भी तथा आत्मज्ञान प्राप्त करके भी परमात्मा का अनुभव कदापि नहीं कर सकता। आचारहीन को वेद भी पवित्र नहीं कर सकते। ४
सच्चे भाव से भगवान् की शरण में जाने पर घोर पापी भी महात्मा हो जाता है। ५
यस्य ब्रह्म च क्षत्रं च उभे भवत ओदनः।
मृत्युर्यस्योपसेचनं क इत्था वेद यत्र सः॥ २५॥
शब्दार्थ: यस्य = जिस (परमेश्वर) के; ब्रह्म च क्षत्रम् च उभे = ब्रह्म और क्षत्र दोनों अर्थात् बुद्धिबल और बाहुबल दोनों; ओदन: भवत: = पके हुए चावल अर्थात् भोजन हो जाते हैं; मृत्यु: यस्य उपसेचनम् = मृत्यु
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१. न मां दुष्कृतिनो मूढा: प्रपद्यन्ते नराधमा:। (गीता, ७.१५)
२. नाप्रशान्ताय दातव्यम् (श्वेत० उप०, ६.२२)
—अशान्त व्यक्ति को ज्ञान नहीं देना चाहिए।
३.आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत्।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे स शान्तिमाप्नोति न कामकामी॥ (गीता, २.७०)
विहाय कामान्य: सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः।
निर्ममो निरहङ्कारः स शान्तिमधिगच्छति॥ (गीता, २.७१)
—कामना के त्याग से शान्ति प्राप्त होती है।
४.आचारहीनं न पुनन्ति वेदा:।
५. अपि चेत् सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यक् व्यवसितो हि स:॥ (गीता, ९.३०)
सम्मुख होइ जीव मोहि जबहीं, जन्म कोटि अघ नासहिं तबहीं।
जिसका उपसेचन (भोजन के साथ खाये जानेवाले व्यंजन, चटनी इत्यादि) (भवति—होता है); स: यत्र इत्था कः वेद = वह परमेश्वर जहाँ (या कहाँ), जैसा (या कैसा), कौन जानता है?
वचनामृत: जिस परमात्मा के लिए बुद्धिबल और बाहुबल दोनों भोजन हो जाते हैं, मृत्यु जिसका उपसेचन होता है, वह परमात्मा जहाँ कैसा है, कौन जानता है?
सन्दर्भ: परमात्मा दुर्विज्ञेय है।
दिव्यामृत: मनुष्य जिन शक्तियों को अत्यधिक महत्त्व देते हैं, वे भी कालरूप परमेश्वर के समक्ष तुच्छ हैं। बुद्धिबल और बाहुबल तथा उनसे संपन्न मनुष्य काल के लिए मानो मात्र भोजन ही हैं। मृत्यु जिसके स्मरणमात्र से मनुष्य प्रकम्पित हो जाते हैं, काल के लिए मात्र उपसेचन है जिसे व्यंजन के रूप में भोजन के साथ खाया जाता है। १ परमात्मा काल का भी काल है, महाकाल है तथा वह स्वयं काल से अप्रभावित अकाल पुरुष है। सम्पूर्ण व्यक्त जगत् काल का एक ग्रास ही है। जो मनुष्य बुद्धिबल अथवा बाहुबल पाकर मदोन्मत्त एवं गर्वित हो जाते हैं, वे मूढ जाते हैं। मूढ जन ऐसा व्यवहार करते हैं मानो वे अमर हैं तथा वे अन्तर्मुखी होकर गंभीर चिन्तन नहीं करते।
मंगलवार, 3 फ़रवरी 2009
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1 टिप्पणी:
Kafi lambi ho gai post aapki. Sarthak shuruaat. Swagat.
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